Friday, August 29, 2008

कोसी कितनी दोषी?

(बिहार में बाढ़ पर ये छोटा सा आलेख एक नवोदित लेखक विकास कुमार सिंह का है। अपनी पीड़ा, वेदना और बिहार के जरिये इंसानी लोभ को उन्होंने उकेरने की कोशिश की है।)
कोसी की गिनती अल्हड़ और खुद ही अपनी लकीर खींचने वाली नदी के रूप में होती है। कब, कहां और कैसे वो अपना रास्ता बदल दे, ये कोई नहीं जानता। शायद वह नदी ये संदेश देना चाहती है कि प्रकृति को अपना काम करने देने हो और खुद को उसके मुताबिक ही ढालकर जीना सीखो। प्रकृति का सहचर बनो, उस पर हावी होने की कोशिश मत करो। लेकिन मनुष्य का स्वभाव ही हर जगह अपनी हेठी और खुद को बड़ा साबित करने का बन चुका है। बिहार में प्रलय का दूसरा नाम बनकर जो बाढ़ आई है, उसने एक बार फिर कोसी को चर्चा का केंद्र बिंदु भी बना दिया है। कोसी ने पूरी तरह अपनी राह बदल ली। इससे बाढ़ और प्रलयंकारी हो गयी। उसकी छवि एक बेहद आवारा नदी की बन गयी और उसके पाश में बिहार के कमोबेश दस जिले जिंदगी की पनाह मांग रहे हैं।
कोसी पर बना भीमनगर का बांध अतिरिक्त जल का दबाव नहीं सह पाया और वह टूट गया। ऐसा बार बार कहा गया लेकिन क्या सच्चाई सिर्फ इतनी ही है। उस तटबंध में दरार और थोडा बहुत पानी रिसना तो अगस्त के बिल्कुल शुरु में ही शुरू हो गया था। लेकिन तब तक उस पर ध्यान नहीं दिया गया, जब तक हालात हाथ से निकल नहीं गया। १५ अगस्त को जब पूरा देश आजादी की सालगिरह मना रहा था, तब उत्तर बिहार के बाढ़ प्रभावित लोगों को साफ दिखने लगा था कि मौत उन्हें गुलाम बनाने आ रही है। लेकिन वो स्थिति नहीं बनती, अगर तटबंध पर पहले ही ध्यान दिया गया होता।
अब सवाल है कि आगे क्या होगा। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने इसे राष्ट्रीय आपदा घोषित कर दिया, लाखों टन अनाज पहुंच गये और सेंटर से एक हजार करोड रूपये भी। इतने रूपये देखकर अनायास वरिष्ठ पत्रकार पी साईनाथ की किताब एवरीबडी लव ए गुड ड्राउट की याद आती है, जिसमें बताया गया है कि कैसे नेता और अफसर बाढ़ और सूखे का इंतजार करते हैं ताकि राहत के नाम पर मिला पैसा उनकी अंटी में चला जाए। क्या बिहार के मामले में भी यही नहीं होगा? महीने दो महीने में लोग भूल जाएंगे कि कुछ समय पहले ही बिहार विनाश के कगार पर बैठा था।
आज जो अधिकारी कोसी को दोषी ठहरा रहे हैं, सच पूछिये तो मन ही मन वो अतिशय प्रसन्न होंगे क्योंकि राहत फंड से उनकी तमाम चाहत पूरी होगी। आखिर इस देश को किसी नदी की बनती बिगड़ी धारा नहीं, बल्कि भ्रष्टाचार की आवारा रफ्तार ही बर्बाद कर रही है।

Monday, August 25, 2008

कॉर्पोरेट नागरिकता जिंदाबाद!

विलासराव देशमुख हमेशा मुस्कुराते रहते हैं। इसमें कोई बुराई भी नहीं है बल्कि अच्छा है कि सेहत दुरुस्त रहे। क्या पता, ६३ साल की उम्र में भी नौजवानों की तरह चमकते दमकते रहने के पीछे एक बड़ा कारण ये भी हो। उनकी मुस्कुराहट कुछ इंच और बढ़ गयी है, जबसे सुना है कि रतन टाटा सिंगूर से अपनी नैनो प्रोजेक्ट को हटाने की चेतावनी दे चुके हैं। लगे हाथ महाराष्ट्र के महापराक्रमी मुख्यमंत्री ने कह दिया कि आइए टाटा, हम करते हैं आपका स्वागत। हम आपको देंगे जमीन। जरूर दीजिए जमीन लेकिन कीमत क्या होगी? करोड़ों का वारा न्यारा या फिर किसानों की मुसीबत? क्या ऐसा नहीं होगा कि सिंगूर के किसानों का दर्द अब विदर्भ के किसानों में गुणात्मक बढोत्तरी के साथ उभकर सामने आएगा?
आखिर महाराष्ट्र के विदर्भ में जमीन बिक रही है। किसानों की हालत खराब है और चिदंबरम साहब का ६० हजार करोड़ का महादान भी उनकी गाड़ी को पटरी पर ला नहीं पा रहा है। ऐसी खबर बार बार आती है कि नागपुर से अकोला के बीच कर्ज के मारे किसाने अपनी जमीन औने पौने दामों पर बेचने को तैयार हैं। वहां आलम ये है कि दस फीसदी लोग भी ऐसे नहीं हैं, जिन्हें भर पेट पौष्टिक भोजन मिलता हो। कमोबेश सभी परिवार कर्ज से दबे हैं और इसे सिर्फ कहावत मत समझिएगा बल्कि कड़वी सच्चाई है कि नमक रोटी पर उनका गुजारा चलता है और वो भी भर पेट नहीं मिलता। रोजगार गारंटी योजना को लेकर कांग्रेसी चारणवृंद जब तब राहुल गांधी की जयजयकार करते हैं और खुद कांग्रेस के युगपुरुष राहुल जी महाराज संसद में शशिकला और कलावती के बहाने विदर्भ और किसानों पर घड़ियाली आंसू बहा चुके हैं। बावजुद इसके विदर्भ के ज्यादातर इलाकों में रोजगार गांरटी योजना शुरु नहीं हो पायी है। अब ऐसे में जमीन बेचकर किसान से खेतिहर मजदूर और फिर मजदूर होते हुए भिखारी बनने या फिर खुदकुशी करने के अलावा उन किसानों की नियति में और क्या हो सकता है। लेकिन उन किसानों की वेदना से खुद को जोड़ने की सच्चे मन से किसी राजनेता ने क्या कोशिश की? करीब चार साल से मुख्यमंत्री की कुर्सी पर विराजमान देशमुख ने ही कहां कुछ सोचा। टाटा के लिए जाजम की तरह बिछने को बेताब मुख्यमंत्री बखूबी जानते हैं कि पैसा तो धनपशुओं से मिलेगा और आज राजनीति की सार्वभौमिक सच्चाई बन गया है अनाप शनाप पैसा।
हालांकि बुद्धदेव भट्टाचार्य जिस तरह टाटा को मनाने में लगे हैं, उससे लगता नहीं कि सिंगूर की नैनो महाराष्ट्र में सजने संवरने जा पाएगी। लेकिन देशमुख जी, घबराने की बात नहीं है। कोई दूसरा टाटा किसानों की जमीन खरीदने आ जाएगा और आप की सरकार करेगी बिचौलिये का काम। किसान गए भाड़ में, कॉर्पोरेट नागरिकता जिंदाबाद!

Sunday, August 24, 2008

कॉर्पोरेट नागरिक बनोगे!

तो सुना आपने, महान देशभक्त रतन टाटा क्या कह रहे हैं? हर अखबार का पहला पन्ना और उसकी कमोबेश पहली खबर उनकी इस धमकी से बनी थी कि बहुत हुआ, अब बर्दाश्त नहीं करेंगे और किसान नहीं माने तो वो सिंगूर को टा टा बोल देंगे। अब देश की नइय्या पार लगाने वाले रतन टाटा जी महाराज ने धमकाया या चेतावनी दी तो खुद को सर्वहारा का प्रतिनिधि बताने वाली पश्चिम बंगाल की सरकार सीधे शीर्षासन पर उतर आयी। दूसरी तरफ महाराष्ट्र से लेकर उत्तराखंड तक के मुख्यमंत्रियों ने टाटा को नयनों में बसा लिया और उनकी सिंगूर वाले प्रोजेक्ट को अपने सूबे में लगाने का न्यौता दे दिया। यानी लाल सलाम से लेकर दलाल सलाम के जरिये सरकार बचाने वाली कांग्रेस और पार्टी जरा हटके भाजपा तक टाटा के स्वागत में जाजम की तरह बिछ गये। आखिर कहीं तो सियासतदानों ने एकजूटता दिखाई। धन्य हैं।
होगी नेताओं के लिए ये चिंता की बात कि सिंगूर में किसानों के विरोध से टाटा दुखी हो गये और सि्गूर छोड़ने की उन्होंने धमकी दे दी। लेकिन असल चिंता कुछ और भी है। २१ अगस्त को कोलकाता में रटन टाटा ने कहा कि ये कोलकाता को तय करना है कि उसे अवांछित नागरिक चाहिए या अच्छा कॉर्पोरेट नागरिक। इशारों में रटन टाटा ने वामपंथियों को भी धमका दिया कि अगर लाल सरकार की पुलिस के होते हुए भी सिंगूर का उनका किला महफूज नहीं रहता तो फिर वो सरकार निकम्मी है। टाटा चाहें तो बुद्धदेव भट्टाचार्य को गरिया सकते हैं, हमको आपको दिखाने के लिए भी। लोगों के सामने तो मजनूं को लैला बुरा बोल ही देती है। लेकिन हम जिस समाज में जीते हैं, उसका मानस कौन तय करेगा? हमें कैसा नागरिक बनना है, वो कौन बताएगा? हम कैसा समाज हैं, इसका सर्टिफिकेट कौन देगा? हमें भारतीय नागरिक बनना है या टाटा जी का कॉर्पोरेट नागरिक, ये कौन तय करेगा? आखिर हम अपना नफा नुकसान देखने वाले एक बनिये के बताए रास्ते पर चलेंगे या फिर उस रास्ते पर दो डेग भरने की जहमत उठाएंगे, जिसे हमारे महान राष्ट्रपिता ने बनाया है?
किसानों की पीड़ा है कि कोलकाता से महज ४० किलोमीटर दूर सिंगूर में उनकी जमीन टाटा के लिए सरकार ने जबरन हथियाई। उनका ये भी कहना है कि वो जमीन उपजाऊ है और उस पर बाप दादा के जमाने से वो खेती करते आ रहे हैं। जमीन के मुआवजे से पांच लाख रुपये मिल ही गये तो उससे उनका क्या होगा। आखिर अपनी जड़ और जमीन से उखड़कर वो क्या करेंगे। यकीकन पहले वो किसान थे, फिर खेतिहर मजदूर बनेंगे और उसके बाद ठेठ मजदूर, जिनकी ना तो कोई जमीन होगी, ना सपनों का आसमान होगा। क्या टाटा के पांच लाख रुपल्ली से उनकी जिंदगी चल जाएगी? दूसरी बात ये है कि कॉर्पोरेट कल्चर के बाद कॉर्पोरेट नागरिक बनाने चले रतन टाटा ने जिन किसानों की जमीन ली, क्यों नहीं उन्हें अपनी कंपनी का शेयरधारक बना दिया। तब समझ में आता कि लेवल पर कॉर्पोरेट कल्चर बह रहा है और देश भी देखता कि उद्धारक का लिबास ओढ़े एक उद्योगपति मानवीय संवेदना से भी भरा है। आखिर गांधी ने ट्रस्टीशीप के सिद्धांत में इसी बात पर ही तो बल दिया था। क्यों नहीं सरकारें गांधी की बात को कबूल कर लेती हैं? आखिर ये देश गांधी के सपनों और संघर्षों से निकला है, टाटा और उनके इशारों पर ता ता थैया करने वाली सरकारों के कमाऊ खाऊ और खून पीऊ नीतियों से नहीं।
लिहाजा किसानों को कॉर्पोरेट नागरिक बनवाने निकले रतन टाटा को चाहिए कि पहले खुद एक साफ सुथरा नागरिक बनें। वो नागरिक, जिसकी आत्मा इस देश की रीढ़ माने जाने वाले किसानों का खून निचोड़कर खुश ना होती हो। तब वो अपना कॉर्पोरेट चलाएं। होंगे रतन टाटा बहुत बड़े देशभक्त लेकिन मैं ये मानने को तैयार नहीं कि किसानों से ज्यादा वो देश की बेहतरी कर सकते हैं या उसके बारे में सोच सकते हैं। इसीलिए सरकारों के लिए भी टाटा के बहाने ये एक चेतावनी ही है कि खेतिहर समाज के धीरज का वे ज्यादा इम्तिहान ना लें।

Monday, July 28, 2008

कुछ कहते हुए भी मौन प्रार्थना

धमाके हमारी नियति बनते जा रहे हैं। जिस तरह भ्रष्टाचार को हमने अपनी जिंदगी का हिस्सा बना लिया है, उसी तरह बम धमाके भी धीरे धीरे हमारे मानस में छठे छमाहे होने वाले हादसे की तरह पैठ बनाते जा रहे हैं। कभी बनारस में हुआ, कभी मुंबई में तो कभी दिल्ली तो कभी हैदराबाद, मालेगांव, जयपुर, बैंगलोर, अहमदाबाद...बम धमाकों और मासूमों की लाश और बेबसी गिनते अनंत सवाल। पहले डर लगता था, अब वो डर एक ऐसी पीड़ा की शक्ल ले चुका है, जिसमें पोर दर पोर टूटना ही लिखा है। जैसे छोटे से घाव के रिसने पर कराहने वाला आदमी कैंसर का असह्य कष्ट झेलने लगता है। अहमदाबाद और बैंगलोर की वो पीड़ा हमारे समाज के उसी कैंसर से निकला है, जिसका इलाज करने की हमने जहमत ही नहीं उठायी। दुर्भाग्य ये है कि अभी भी खांसी जुकाम की दवा से उस मरीज को जिलाने की हसरत पाले हुए हैं। क्या ये सच नहीं है कि जैसे मुंबई, बनारस, दिल्ली और दूसरे बम धमाकों और उसमें खोयी जिंदगियों का गम अब हमारे जेहन में नहीं है, वैसे ही कल हम बैंगलोर और अहमदाबाद को भी भुला देंगे? वेदना की इस घड़ी में ये कहना मर्म पर चोट पहुंचाने वाला जरूर लग सकता है, लेकिन हम सब दो तीन दिन में अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेंगे। अहमदाबाद में सोनिया गांधी पहुंची, मनमोहन सिंह पहुंचे, नरेंद्र मोदी पहुंचे। दो चार दिन तक जाने-अनजाने नायकों का वहां जाना लगा हुआ है। सब रटी रटायी बात कर रहे हैं। भाजपा कांग्रेस को कोस रही है, कांग्रेस भाजपा को।
लेकिन हमारे समाज का मानस क्या सोचता है? मेरे एक मित्र, जिनकी रा और आईबी में काफी पैठ है, एक बार बता रहे थे कि मुंबई और दूसरी जगहों पर बम धमाके करने वाले कुछ आतंकवादियों से पूछा गया कि वो ऐसा क्यों करते हैं। तो जवाब आया कि २००२ के गुजरात दंगों का बदला लेने के लिए। लेकिन २००२ के दंगे तो नरेंद्र मोदी के राज में हुआ था, लिहाजा बदला तो गुजरात में लिया जाना चाहिए। लेकिन वहां तो धमाका होता नहीं। पकड़े गये एक आतंकवादी का कहना था कि अगर हमने गुजरात में कुछ किया तो मोदी एक एक कर मुसलमानों को मरवाना शुरु कर देंगे, जैसा कि छह साल पहले हुआ था। पूछने वाले अधिकारी का निष्कर्ष था कि मोदी का डर गुजरात को आतंक की आग से बचाए रखेगा। लेकिन अहमदाबाद में बहे खूनों ने उस निष्कर्ष को लहूलुहान कर दिया है। क्या इससे एक धुंधली तस्वीर ये नहीं बनती कि सिर्फ कड़ाई या चतुराई दिखाने से आतंकवाद दूर नहीं हो सकता। मोदी गुजरात के एक बड़े हिस्से को ये एहसास तो दिला सकते हैं कि उनके राज में कुछ नहीं होगा लेकिन अंदर से उनका साहस और खुफिया तंत्र भी सड़ा हुआ है।
हर धमाके के बाद एक सवाल ये भी उठता है कि आतंकवादियों को स्थानीय लोगों का प्रश्रय मिला था। बात सही है और जब ये सवाल उठता है तो उंगली स्थानीय मुसलमानों की तरफ ही उठती है। दंगों में वो भी बहुत कुछ गंवाते हैं लेकिन उनकी पीड़ा इस मामले में थोड़ी अलग होती है कि वो ना सिर्फ अपनों का जनाजा उठाते हैं, बल्कि सशंकित नजरों से देखे जाने का असहनीय बोझ भी वो उठाते हैं। बीस साल पहले भारत में जम्मू-कश्मीर को छोड़कर कोई भी इलाका आतंकवाद की वैसी चपेट में नहीं रहा, जैसा कि अब है। पंजाब, असम और उत्तर पूर्व की कुछ आतंकवादी गतिविधियां उन धमाकों से जुदा हैं, जो हर कुछ महीनों पर हमें भोगना पड़ता है। अगर ये मान भी लिया जाए कि आतंकवादी स्थानीय मुसलमानों को मजहब के नाम पर बरगलाते हैं तो भी वैसे माहौल के लिए क्या देश के कुछ स्वनाम धन्य बड़े नेता दोषी नहीं हैं? हिंदुस्तान में हिंदू-मुसलमान की लड़ाई काफी पुरानी है। अब धमाके होते हैं, पहले दंगे होते थे। जो रिकॉर्ड है, उसके मुताबिक पहला दंगा १७९२ या ९३ में होली के समय हुआ था और वो भी गुजरात के तटीय इलाके में। उसके बाद भी दंगे फसाद होते रहे, हिंदुओं और मुसलमानों में जब तब ठनती रही लेकिन उनकी ये लड़ाई कुछ वैसी ही थी, जैसे दो चचाजात भाइयों में होती है। जमीन जायदाद के मसले पर होने वाली छोटी मोटी लड़ाई, जो धीरे धीरे फिर से प्यार और मनुहार में बदल जाती है। लेकिन ६ दिसंबर १९९२ को अयोध्या में जो कुछ हुआ और मर्यादा के पुरुषोत्तम भगवान राम के नाम पर हुआ, उसने दिलों में दरार पैदा कर दिया। मंदिर और मस्जिद टूटे तो वो जुड सकते हैं लेकिन भरोसे वाला दिल दरक जाए तो फिर उसका जुड़ना मुश्किल हो जाता है। उस घटना के बाद से ही हिंदू मुसलमानों में एक तीक्ष्ण विभेदक दूरी बन गयी या बना दी गयी।
अब उसके लिए दोषी कौन है? बगैर किसी लाग लपेट के कहा जाए तो कांग्रेस और भाजपा। इन दोनो पार्टियों में भेद करना उतना ही मुश्किल है, जितना मुश्किल खुद भगवान राम के लिए बालि और सुग्रीव में भेद करना था। जिस तरह दोनो की शक्ल हू ब हू मिलती थी, वैसे ही कांग्रेस और बीजेपी भी हु ब हू मिलते हैं। नई सोच वाले नई उम्र के प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने अयोध्या में अनायास और नाहक राम जन्मभूमि का ताला खुलवा दिया और लाल कृष्ण आडवाणी की अगुवाई में बीजेपी के कारसेवकों (या संहारसेवकों) ने राम जन्मभूमि बाबरी मस्जिद का ढांचा गिरा दिया। मौनी बाबा बने रहने वाले कांग्रेसी प्रधानमंत्री नरसिम्हाराव ने गुप चुप तरीके से भाजपा का साथ दिया। राव के बारे में यूं ही नहीं कहा जाता था कि धोती के नीचे वो आरएसएस का हाफ पैंट पहनते थे।
आपको लग रहा हो कि विषयांतर हो रहा है। कहां तो हम धमाके की बात कर रहे थे और कहां उस धमाके को भाजपा और कांग्रेस पर पटक रहे हैं। लेकिन ये बात हम इसलिए कर रहे हैं कि देश की दोनो मुख्य पार्टियों ने कभी जनमत को साफ सुथरा बनाने की कोशिश नहीं की। अगर धर्म के नाम पर विभाजन और वोट के लिए बांग्लादेश से घुसपैठ पर इन्होंने सुदृढ़ इच्छा शक्ति के साथ काम किया होता तो हर आए दिन आतंक की आग में झुलसने के लिए ये देश अभिशप्त नहीं होता। आखिर जब तक हमारे मन का आतंकवाद नहीं मरेगा, पोटा या सोंटा या गोली बारूद से आतंकवाद का खात्मा नहीं हो सकता। क्या हम इसके लिए तैयार हैं? अभी तो कुछ कहते हुए भी मौन प्रार्थना ही की जा सकती है।

कलावती के बहाने देखो स्वार्थ साधने की कला

कांग्रेस महासचिव और सोनिया गांधी के बेटे राहुल गांधी के लोकसभा में दिये भाषण की इतनी चर्चा और प्रशंसा हो रही है कि कहिए मत। जिसे देखिए वही ३८ साल के इस कांग्रेस सांसद के भाषण की संजीदगी पर कुर्बान हुए जा रहा है। इसमें कोई बुराई भी नहीं है। वह देश के सबसे मजबूत राजनीतिक परिवार के वारिस हैं और कल की कांग्रेस की आशा और अरमान के इकलौते केंद्र बिंदु। वैसे भी जिस तरह संसद में बहस का स्तर गिरता जा रहा है और लोकतंत्र की सबसे बड़ी पंचायत असभ्यता का अखाड़ा बन गयी है, उसमें राहुल गांधी की शालीनता कुछ को लुभाएगी ही। जिन्हें लुभाया, वो शान बघारेंगे ही।
राहुल ने कलावती की चर्चा संसद में छेड़ी। राहुल उस गरीब विधवा का नाम नहीं लेते तो कलावती को कोई जानता भी नहीं। लेकिन उसका नाम लेकर राहुल ने उन्हें लाइमलाइट में ला दिया। विदर्भ की रहने वाली कलावती देश के करोड़ो अभागे किसानों में से एक है और उसकी जिंदगी की कुल जमा पूंजी और उपलब्धि बस इतनी है कि राहुल गांधी उसके दर पर पहुंच गये। राहुल ने कलावती का हाल चाल पूछा। उन्हें पता चला कि कलावती के पति ने पचास हजार रुपये कर्ज लिये थे और उसे चुकाने में अक्षमता की वजह से उसने खुदकुशी कर ली थी। कलावती का पति तो दुनिया छोड़ गया लेकिन कर्ज सूद समेत अब ८५ हजार रुपये तक पहुंच गया है। कलावती किसान से खेतिहर मजदूर बन गयी है और कल उसके चार बच्चों का क्या होगा, वो नहीं जानती। हारे को हरिनाम जैसी कहावत कलावतियों के लिए ही होती है।
अब राहुल गांधी ने कलावती के लिए क्या किया? एक अखबार ने संसद में राहुल के भाषण के दूसरे दिन छापा कि राहुल कलावती के घर गये, उसे देखा और कुछ नहीं किया। आखिर पूरे देश की चिंता में गलने वाले कांग्रेस के युवराज अब एक महिला के लिए क्या करें। लेकिन तमाम कलावतियों की दुर्दशा दूर करने का रास्ता उन्हें जरूर मिल गया। धन्य हैं वामपंथी जो उन्होंने मनमोहन सरकार से समर्थन वापस ले लिया और सरकार के विश्वास प्रस्ताव पर संसद में चर्चा हुई और राहुल गांधी को बोलने का मौका मिला और पूरे देश ने उन्हें सुना। राहुल ने कांग्रेसी सांसद नहीं बल्कि एक भारतीय (क्या दूसरे सांसद भारतीय नहीं हैं?) बनकर बताया कि अमेरिका से परमाणु संधि होगी तो देश में बिजली का नया करंट दौड़ेगा और वहीं करंट गरीबी, भुखमरी और बेरोजगारी का रामवाण इलाज होगा। इसके लिए उन्होंने अपने सज्जन और ईमानदार प्रधानमंत्री का धन्यवाद ज्ञापन भी किया।
लेकिन सवाल है कि क्या अमेरिका से परमाणु संधि में कोई दैवीय शक्ति है कि वो गरीबी को छू मंतर कर देगा। अगर परमाणु बिजली इतना महत्वपूर्ण है तो अमेरिका ने १९७८ के बाद अपने यहां एक भी परमाणु बिजली घर क्यों नहीं स्थापित किया? फिर अमेरिका में ही कितना परमाणु बिजली का इस्तेमाल होता है, इसको लेकर थोड़ा बहुत मतभेद हो सकता है लेकिन एक रिपोर्ट के मुताबिक वहां भी परमाणु उर्जा से तीन से चार फीसदी ही बिजली उत्पन्न होती है। दरअसल परमाणु बिजली के लिए यूरेनियम चाहिए और युरेनियम का भाव इन दिनों ३०० डॉलर प्रति किलोग्राम है। इस हिसाब से देखिए तो परमाणु बिजली कितनी महंगी पड़ेगी और कितने लोगों के घरों में उजाला करेगी। उस पर से पर्यावरण का जो हाल होगा, वो रोना तो अलग से रोया जाएगा। अगर ऐसा नहीं होता तो अमेरिका के अलावा ब्रिटेन और दूसरे यूरोपीय देश अपने यहां परमाणु बिजली के नए केंद्र लगाना क्यों बंद करते?
लेकिन परमाणु संधि पर फिर भी ईमानदारी का पुतला बने मनमोहन सिंह उतारु हैं और राहुल गांधी उसे गरीबी निवारण का एक मात्र उपाय मानते हैं। इसके कारण की तरफ वरिष्ठ पत्रकार प्रभाष जोशी ने सही इशारा किया है। प्रभाष जी ने लिखा है कि अमेरिका के साथ कमीशनखोरी का मामला दस से बीस फीसदी तक जाता है। ऐसे में अगर परमाणु उर्जा संधि के क्षेत्र में सत्रह लाख करोड़ रुपये का निवेश होता है तो दस फीसदी के लिहाज से भी एक लाख सत्तर हजार करोड़ रुपये का कमीशन मिल जाएगा। ये कमीशन भारत में किसे मिलेगा, नहीं मालूम। लेकिन सोचिए, अगर एबी बर्धन के आरोपों को ही सही मानकर चलें तो एक सांसद को खरीदने में पचीस करोड़ के लिहाज से बीस सांसदों को मैनेज करने में कुल पांच सौ करोड़ रुपये हुए। अब एक लाख सत्तर हजार करोड़ रुपये में से हजार पांच सौ करोड़ चला ही जाए तो क्या फर्क पड़ता है। ईमानदार मनमोहन सिंह, त्याग की देवी सोनिया गांधी और समाजवाद का नाम रोशन कर रहे मुलायम सिंह और अमर सिंह तो धन्य हो ही जाएंगे। किसकी किस्मत में क्या बदा है, ये तो वही जाने।
बात फिर राहुल गांधी पर आती है। जिस विदर्भ में कलावती की पीड़ा का विधवा प्रलाप वो संसद में कर रहे थे, उसी विदर्भ में सबसे बडे साहुकारों में गिनती होती है एक कांग्रेसी विधायक दिलीप सानंदा की। कहते हैं कि सानंदा महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख के नाक के बाल हैं और कर्ज वसूली के नाम पर मृत किसानों का खून पीकर सानंद जी रहे हैं। ये बात विदर्भ का बच्चा बच्चा जानता है लेकिन दुर्भाग्य है कि कांग्रेस का लाडला बच्चा ही नहीं जानता। जाहिर है कि राहुल गांधी को पूरी बात की जानकारी नहीं है या फिर एक घाघ नेता की तरह वो भी अपने खुंखार विधायक और किसानों की मौत के सौदागर नेताओं को बचाना चाहते हैं। दोनो में बात चाहे जो सच हो, वो निर्मम घात करने वाली है। अब कलावती जिए या मरे, संसद में उसके नाम का मंत्रोच्चार करके राहुल बाबा ने तो अपना सद्धर्म निभा दिया। कांग्रेस गदगद हुई, सोनिया मुदित हुईं, पढ़े लिखे बुद्धिजीवी कहे जाने वालों ने जयजयकार किया, लेकिन जिस कलावती का नाम बेचा गया, वो बेचारी चालीस रुपये की मजूरी के लिए दर दर भटक रही होगी।

Tuesday, July 22, 2008

सब गंवाकर बहुमत पाये

करार पर सरकार आफत में फंस गयी थी लेकिन अमर सिंह जैसे स्वनामधन्य नेता की मेहरबानी और मदद से मनमोहन सिंह की नैय्या पार लग गयी। कहां तो मीडिया के जानकार और पंडिता दम साधकर २७० के आंकड़े तक सरकार को पहुंचा रहे थे और कहां मनमोहन ने ऐसी हनुमान कूद लगाई कि सीधे २७५ तक पहुंच गये। अर्थात सरकार को मिला पूर्ण बहुमत। मनमोहन मुग्ध हुए, सोनिया प्रसन्न हुईं और अमर सिंह की अमर साधना पूर्ण हुई। अब सरकार आराम से परमाणु करार कर लेगी।
लेकिन सवाल है कि जिन माननीय सांसदों के आचार व्यवहार को लेकर खुद सरकार तक को भरोसा नहीं था कि वो क्या करेंगे, उनको लेकर बाजार कैसे भांप गया था कि सरकार नहीं जा रही है। आडवाणी के शब्दों में जिस समय सरकार आईसीयू में जिंदगी और मौत के बीच झूल रही थी, उस वक्त बाजार कुंलाचे मार रहा था और दोनो दिन ही शेयर सूचकांक में इजाफा हुआ। तो क्या ये ना माना जाए कि सरकार को चुनने वाली जनता भले गफलत में रही हो, उसे भले ही सरकार के वजूद को लेकर शक सुबहा रहा हो, लेकिन बाजार किसी असमंजस में नहीं था। ये अकारण नहीं है कि अनिल अंबानी के दोस्त अमर सिंह सरकार बचाने के लिए सांसदों के जोड़ तोड़ में जुटे थे तो दूसरी तरफ अनिल के बड़े भाई और व्यावसायिक प्रतिद्वन्द्वी मुकेश अंबानी ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से एकांत में मुलाकात किया। फिर वो मुलाकात त्याग की देवी सोनिया गांधी से भी हुई। उसके बाद बड़े उद्योगपति राहुल बजाज ने जो बयान दिया, उससे भी साफ हो गया कि सरकार पर संकट नहीं है। लेकिन अपने बयान में राहुल बजाज ने ये भी जो़ड दिया कि बगैर वामपंथियों के सरकार चले तो ये ज्यादा बेहतर है।
मैं वामपंथी नहीं हूं लेकिन चार साल से सरकार को सहारा देने वाले वामपंथियों की मौजूदगी तमाम बजाजों को क्यों अखर जाती है। इसकी तरफ तो माकपा के सांसद मोहम्मद सलीम ने अपने भाषम में साफ इशारा कर दिया था। सलीम ने दो टूक कहा कि उन्होंने तो मनमोहन सिंह को लीडर समझा था लेकिन वो तो डीलर निकले। रही बात नफा नुकसान की नजरों से ही पूरे कायनात को देखने वाले उद्योगपतियों की, तो उन्हें लीडर नहीं, डीलर चाहिए। इसीलिए बजाजों, अंबानियों, टाटाओं, बिड़लाओं, हिंदुजाओं, मित्तलों को अमर सिंह चाहिए, जिसकी कोई जमीनी हैसियत ना हो। ये हमारे समाजवादी आंदोलन का दुर्भाग्य है कि मुलायम सिंह यादव जैसा धरतीपुत्र अमर सिंह के हाथों की कठपुतली बन गया।
विषयांतर ना हो, लिहाजा मूल विषय पर लौटते हैं। याद कीजिए कि झारखंड मुक्ति मोर्चा के चार सांसदों के १९९३ में तत्कालीन पीवी नरसिम्हाराव सरकार ने खरीदा था। मामला खुला तो नरसिम्हाराव की कैसी भद्द पिटी। पिछले पंद्रह साल में तमाम प्रदूषण और कचड़े के बावजूद यमुना में काफी पानी बह चुका है। तब चार सांसदों पर हाय तौबा मची थी लेकिन आज ना जाने कितने सांसदों की बोली लगी, कितने सांसदों को कागज के चंद मोटे टुकडों पर खरीदा बेचा गया लेकिन सरकार बचाने वाले मनमोहन सिंह अब भी ईमानदारी के पुतले बने हुए हैं। सरकारें आती हैं, जाती हैं लेकिन सरकार का इकबाल एक बार चला जाए तो वो दोबारा नहीं लौटता। लेकिन हमारा खाया पीया अघाया समृद्ध तबका मनमोहन और सोनिया के भ्रष्टाचार और गंदगी में आपादमस्तक डूबकर सरकार बचाने की अमर्यादित करनी को नहीं देखता।
समाजवादी नेता डॉ राम मनोहर लोहिया कहा करते थे कि जिंदा कौम पांच साल तक इंतजार नहीं करती। लिहाजा इस सड़ी गली सरकार का चला जाना बहुत जरूरी था। लेकिन दुर्भाग्य इस बात की है कि उस लोहियावादी राजनीति की उपज और खुद को समाजवादी कहने वाले मुलायम, लालू, रामविलास इस सरकार के जयकारे में जुटे हैं, जिसकी अगुवाई वर्ल्ड बैंक का एक भूतपूर्व नौकर कर रहा है।

Saturday, July 19, 2008

ये आपके इमानदार प्रधानमंत्री हैं !



जब बहुत से लोगों को, खासकर पढ़े लिखे और बुद्धिजीवी किस्म के लोगों को, ये कहते-सुनते-लिखते देखता हूं कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह बड़े ईमानदार और मानवीय सरोकारों से परिपूर्ण व्यक्तित्व हैं, तो मेरी भी इच्छा होती है कि अपने प्रधानमंत्री जी की तारीफ का भागीदार बनूं। एक दो रोज पहले ही कहीं पढ़ा कि कैसे मनमोहन सिंह के घर के लोग करीब तीन साल पहले एक क्रिकेट मैच के लिए कतार में खड़े होकर टिकट खरीदने गये थे। इस घटना को प्रधानमंत्री की असंदिग्ध ईमानदारी से जोड़कर देखा गया। वैसे ही कुछ समय पहले मेरे एक मित्र ने प्रधानमंत्री का बायोडाटा मुझे मेल किया था। उसमें उनकी विद्वता का बखान करते हुए आखिर में एक नोट लिखा गया था कि क्या ऐसा विद्वान प्रधानमंत्री किसी और देश को नसीब है।
वाकई प्रधानमंत्री की इस तारीफ पर बलैया लेना चाहिए लेकिन क्या किया जाए। चलताऊ और व्यक्तिगत खूबियों के बूते किसी राष्ट्र का नक्शा नहीं बदलता, वैसे ही मनमोहन सिंह के घर वालों के कतार में खड़े होने और उनके महान बायोडाटा से भारत का बायोडाटा चमकीला नहीं हो जाता।
प्रधानमंत्री में आखिर क्या गुण होने चाहिए। बहुत पहले तुलसी दास ने लिखा था- मुखिया मुख सो चाहिए खान-पान को एक। पाले पोसे अंग सकल, तुलसी सहित विवेक। अर्थात मुखिया को मुख की तरह ही शरीर के हर अंग का बराबर खयाल रखना चाहिए। बस इसी कसौटी पर प्रधानमंत्री को कसा जाए तो क्या वो देश का मुखिया बने रहने के हकदार हैं। एक सरकारी रिपोर्ट के मुताबिक ही इस समय देश के ८४ करोड़ से ज्यादा लोग हर रोज बीस रुपये से भी कम कमाते हैं। अब सोचिये कि जब महंगाई माउंट एवरेस्ट को छूने पर आमादा हो, उस समय ६०० से भी कम में महीने का गुजारा कैसे मुमकिन होगा। क्या लोगों की बेचैनी, उनकी बेबसी ने कभी प्रधानमंत्री के आंखों से उनकी रातों की नींद चुरायी है। क्या कभी उन्होंने सोचा है कि भारत माता ग्राम वासिनी वाले हिंदुस्तान में गांव बदहाली और तंगी का दूसरा नाम बन चुके हैं और विषमता अंग्रेजों के जमाने से भी ज्यादा बढ़ गयी है। दूसरी तरफ देश में अरबपतियों-खरबपतियों की संख्या बढ़ती जा रही है और उसे एक शक्तिशाली भारत का नाम दिया जा रहा है। आखिर ये विषमता विद्वान और ईमान वाले प्रधानमंत्री की साख और सम्मान में बट्टा नहीं लगाती।
कहते हैं कि पहली मर्तबा हरियाणा के मुख्यमंत्री बनने के बाद वंसीलाल ने अपने दफ्तर में राज्य का मानचित्र देखकर बड़े बड़े अफसरों को बुलाया। उनसे पूछा कि नक्शे पर हरे रंग का क्या मतलब है, सफेद रंग का क्या अर्थ निकलता है और ये लाल रंग क्या इंगित करता है। अधिकारियों ने बताया कि हरा रंग बताता है कि राज्य का वो इलाका सिंचाई के साधनों से भरा है और वहां अच्छी फसल होती है। मुख्यमंत्री ने फरमान सुनाया कि बहुत जल्द ही पूरे नक्से को हरा करके दिखाओ। अधिकारियों के हाथ पांव फूल गये, उन्होंने कहा कि ये इतनी जल्द मुमकिन नहीं। लेकिन वंसीलाल टस से मस नहीं हुए और आखिरकार लाल फीताशाही के आदी हो चुके अफसरों को जी जान से काम में जुट जाना पड़ा। वंसीलाल की गिनती मनमोहन सिंह की तरह निपट ईमानदार नेता में नहीं होती लेकिन उनकी दृढ़ता ने वो करवा दिया, जिस पर अफसर नाक-भौं सिकोड़ने लगते हैं। क्या प्रधानमंत्री वैसा कर सकते हैं?
नहीं कर सकते। आखिर उसी अफसरशाही की उपज ये भी हैं और इसीलिए बाबुओं के बूते ही देश का भला होते देखना चाहते हैं। अगर वैसा हो जाता, तो इसमें कोई बुराई नहीं थी लेकिन ऐसा दिखता नहीं। आखिर बाबुगिरी का ही तो असर था, जो तीन साल पहले ब्रिटेन जाकर प्रधानमंत्री जी ने अंग्रेजों की तारीफ में ये कह दिया कि अगर आप नहीं आए होते तो हम ना तो अनुशासित हो पाते, ना ही सभ्य। ये बयान था उस देश के प्रधानमंत्री का, जो अपने पांच हजार साल की सभ्यता को भूल गये थे और उनकी तारीफ कर रहे थे, जिन्होंने दो सौ साल तक इस देश को रौंदा था। वो तो एक अधनंगे फकीर का पराक्रम काम कर गया, नहीं तो प्रधानमंत्री जैसे लोग उन्हीं अंग्रेजों के राज में हाइली-पेड बाबू होते।
लोकतंत्र सही मायने में तभी निखरकर आता है, जब उसका नेता लोगों की तरफ से चुना होता है। लेकिन मनमोहन सिंह तो चुनाव लड़ना ही नहीं जानते। जिस जनता के नाम पर घड़ियाली आंसू बहाते हैं, उनके बीच जाकर उनसे जनमत मांगने में ही डर लगता है। और ले देकर एक बार १९९९ में दक्षिण दिल्ली से लोकसभा का चुनाव लड़ा था। तब प्रचार के दौरान बार बार ये दुहाई देते थे कि अगर चुनाव नहीं जीते तो राज्य सभा से इस्तीफा दे देंगे। लोगों ने सोचा कि चलो, आजमाकर देख ही लेते हैं। मनमोहन सिंह को हरा दिया। इन्होंने इस्तीफा नहीं दिया, बल्कि राज्यसभा के उसी गलियारे से उठाकर सोनिया गांधी ने इन्हें प्रधानमंत्री बना दिया।
लोकतंत्र का इससे बड़ा मजाक नहीं हो सकता कि लोकतांत्रिक तरीके से चुने गये प्रधानमंत्री की जगह एक नियुक्त प्रधानमंत्री हुकूमत चला रहा है। चूंकि हमारा अभिजात वर्ग अंग्रेजों के जमाने के बाबूगीरी और नौकरशाही के संस्कार से बाहर नहीं निकला है, लिहाजा मनमोहन सिंह उनके मन को मोह लेते हैं। लेकिन बात इतने पर ही नहीं रुकती। अमेरिका के साथ असैन्य परमाणु करार को लेकर प्रधानमंत्री ने जिस तरह की हठधर्मिता दिखायी है, उसका मकसद क्या है। क्या ये इतना महत्वपूर्ण सवाल था कि जिन कम्युनिस्टों के बूते चार साल से ज्यादा वक्त तक आपकी सरकार खींच गयी, उन्हें मसौदा तक नहीं दिखाया। आखिर जिद, गुस्सा, झल्लाहट और राष्ट्रीय सरोकारों को परे ढकेल कर खुद को अमेरिकापरस्त बनाने की ये मानसिकता देश को कहां ले जाएगी।
अब ये हमारा आपका दुर्भाग्य है या सौभाग्य... ये सोच लीजिए।

Saturday, June 7, 2008

गलती करे जोलहा, मार खाये गदहा

थोडे असमंजस, थोड़ी ना-नुकूर और थोड़ी फुसफुसाहट के साथ ही सरकार ने पेट्रोल, डीजल और रसोई गैस की कीमतों में बढ़ोत्तरी कर ही दी। कितना किया, अब उस दुखती रग को छेड़ने से क्या फायदा। लेकिन सरकार के फैसले ने विपक्ष को तो छेड़ ही दिया। सरकार को समर्थन देने वाली कम्युनिस्ट पार्टियां उस लैला की तरह हो गयीं, जो जमाने के आगे तो मजनूं को भला बुरा कहती है लेकिन दुनिया की आड़ में उनका प्रेमालाप बदस्तूर जारी रहता है। आखिर क्या करें, खुद को जब कम्युनिस्ट कहना है तो जनवादी तो दिखना ही पड़ेगा। हों या ना हों, इसके क्या फर्क पड़ता है। इसे लोकतंत्र की बदनसीबी ही कहेंगे कि यहां कुछ करने से ज्यादा कुछ क दिखाने का ढिंढोरा ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है। बेचारी कम्युनिस्ट पार्टियों ने भी कोलकाता में बंद रखकर ये मान लिया कि पेट्रोल-डीजल की बढ़ोत्तरी पर उसने अपना कर्तव्य निबाह लिया। उन्हें ये नहीं दिखता कि पेट्रोलियम पदार्थों पर आंध्र प्रदेश के बाद सबसे ज्यादा बिक्री कर पश्चिम बंगाल सरकार ही लगाती है, जहां लाल क्रांति वाले कम्युनिस्टों का परचम बीते ३१ साल से लहरा रहा है।
लेकिन सबसे नाटकीय और अमानवीय विरोध रहा भारतीय जनता पार्टी का।
भाजपा नेता वेंकैय्या नायडू ने बैलगाड़ी की सवारी की तो मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री अपने मंत्रियों के साथ साइकिल पर चलते दिखे। हद तो भाजपा की एक व्यापारिक शाखा ने कर दी। उसने मारुति ८०० कार को दो गधों से जोत दिया। बेचारे गधे तथाकथित इंसानों
के बीच हक्के बक्के कार को खींच रहे थे। वो मन में सोच रहे होंगे कि गलती तो मनमोहन सिंह और मुरली देवड़ा की है, खामियाजा हम भुगत रहे हैं।
आखिर उन गधों की गलती क्या थी? आपको कार पर चलना है या नहीं चलना है, उससे गधों और बैलों का क्या लेना-देना। सरकार के पेट्रोल डीजल की कीमतें बढ़ाने से आप कार से उतरकर बस या पैदल हो गये, उसमें उन निरीह पशुओं की क्या गलती है। गधे और बैल तो सही मायने में श्रम के प्रतीक हैं। इस खेती प्रधान देश में उनकी बड़ी जरूरत है। निश्छलता, कर्मठता और स्वामिभक्ति की उनकी प्रवृति का आदर किया जाना चाहिए। लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि देश-भक्ति की ढोल पीटने वाली बीजेपी उन महान मूल्यों की कीमत नहीं जानती। वक्त के मुताबिक एक प्रचलित कहावत को बदलकर कहें तो गलती तो जोलहा ने किया, मार बेचारा गदहा खा रहा है।
वजह साफ है कि उस हवा हवाई पार्टी में जमीन का दुख-दर्द समझने वाला कोई नहीं है। कायदे से तो उम्र के आखिरी पड़ाव पर ही सही, बीजेपी के प्रतीक्षारत प्रधानमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी को चाहिए कि खेती-बाड़ी वाले इस देश को ठीक से जानने की कोशिश करें और हो सके तो वेंकैय्या नायडू और दूसरे अपने नेताओं को भी ये नेक सलाह दें। वैसे एक बात और जोड़ दूं कि ये बात कांग्रेस पर भी लागू होती है। आखिर भाजपा कांग्रेस का ही तो विस्तार है। कैसे? इसकी चर्चा बाद में होगी।