Sunday, August 24, 2008

कॉर्पोरेट नागरिक बनोगे!

तो सुना आपने, महान देशभक्त रतन टाटा क्या कह रहे हैं? हर अखबार का पहला पन्ना और उसकी कमोबेश पहली खबर उनकी इस धमकी से बनी थी कि बहुत हुआ, अब बर्दाश्त नहीं करेंगे और किसान नहीं माने तो वो सिंगूर को टा टा बोल देंगे। अब देश की नइय्या पार लगाने वाले रतन टाटा जी महाराज ने धमकाया या चेतावनी दी तो खुद को सर्वहारा का प्रतिनिधि बताने वाली पश्चिम बंगाल की सरकार सीधे शीर्षासन पर उतर आयी। दूसरी तरफ महाराष्ट्र से लेकर उत्तराखंड तक के मुख्यमंत्रियों ने टाटा को नयनों में बसा लिया और उनकी सिंगूर वाले प्रोजेक्ट को अपने सूबे में लगाने का न्यौता दे दिया। यानी लाल सलाम से लेकर दलाल सलाम के जरिये सरकार बचाने वाली कांग्रेस और पार्टी जरा हटके भाजपा तक टाटा के स्वागत में जाजम की तरह बिछ गये। आखिर कहीं तो सियासतदानों ने एकजूटता दिखाई। धन्य हैं।
होगी नेताओं के लिए ये चिंता की बात कि सिंगूर में किसानों के विरोध से टाटा दुखी हो गये और सि्गूर छोड़ने की उन्होंने धमकी दे दी। लेकिन असल चिंता कुछ और भी है। २१ अगस्त को कोलकाता में रटन टाटा ने कहा कि ये कोलकाता को तय करना है कि उसे अवांछित नागरिक चाहिए या अच्छा कॉर्पोरेट नागरिक। इशारों में रटन टाटा ने वामपंथियों को भी धमका दिया कि अगर लाल सरकार की पुलिस के होते हुए भी सिंगूर का उनका किला महफूज नहीं रहता तो फिर वो सरकार निकम्मी है। टाटा चाहें तो बुद्धदेव भट्टाचार्य को गरिया सकते हैं, हमको आपको दिखाने के लिए भी। लोगों के सामने तो मजनूं को लैला बुरा बोल ही देती है। लेकिन हम जिस समाज में जीते हैं, उसका मानस कौन तय करेगा? हमें कैसा नागरिक बनना है, वो कौन बताएगा? हम कैसा समाज हैं, इसका सर्टिफिकेट कौन देगा? हमें भारतीय नागरिक बनना है या टाटा जी का कॉर्पोरेट नागरिक, ये कौन तय करेगा? आखिर हम अपना नफा नुकसान देखने वाले एक बनिये के बताए रास्ते पर चलेंगे या फिर उस रास्ते पर दो डेग भरने की जहमत उठाएंगे, जिसे हमारे महान राष्ट्रपिता ने बनाया है?
किसानों की पीड़ा है कि कोलकाता से महज ४० किलोमीटर दूर सिंगूर में उनकी जमीन टाटा के लिए सरकार ने जबरन हथियाई। उनका ये भी कहना है कि वो जमीन उपजाऊ है और उस पर बाप दादा के जमाने से वो खेती करते आ रहे हैं। जमीन के मुआवजे से पांच लाख रुपये मिल ही गये तो उससे उनका क्या होगा। आखिर अपनी जड़ और जमीन से उखड़कर वो क्या करेंगे। यकीकन पहले वो किसान थे, फिर खेतिहर मजदूर बनेंगे और उसके बाद ठेठ मजदूर, जिनकी ना तो कोई जमीन होगी, ना सपनों का आसमान होगा। क्या टाटा के पांच लाख रुपल्ली से उनकी जिंदगी चल जाएगी? दूसरी बात ये है कि कॉर्पोरेट कल्चर के बाद कॉर्पोरेट नागरिक बनाने चले रतन टाटा ने जिन किसानों की जमीन ली, क्यों नहीं उन्हें अपनी कंपनी का शेयरधारक बना दिया। तब समझ में आता कि लेवल पर कॉर्पोरेट कल्चर बह रहा है और देश भी देखता कि उद्धारक का लिबास ओढ़े एक उद्योगपति मानवीय संवेदना से भी भरा है। आखिर गांधी ने ट्रस्टीशीप के सिद्धांत में इसी बात पर ही तो बल दिया था। क्यों नहीं सरकारें गांधी की बात को कबूल कर लेती हैं? आखिर ये देश गांधी के सपनों और संघर्षों से निकला है, टाटा और उनके इशारों पर ता ता थैया करने वाली सरकारों के कमाऊ खाऊ और खून पीऊ नीतियों से नहीं।
लिहाजा किसानों को कॉर्पोरेट नागरिक बनवाने निकले रतन टाटा को चाहिए कि पहले खुद एक साफ सुथरा नागरिक बनें। वो नागरिक, जिसकी आत्मा इस देश की रीढ़ माने जाने वाले किसानों का खून निचोड़कर खुश ना होती हो। तब वो अपना कॉर्पोरेट चलाएं। होंगे रतन टाटा बहुत बड़े देशभक्त लेकिन मैं ये मानने को तैयार नहीं कि किसानों से ज्यादा वो देश की बेहतरी कर सकते हैं या उसके बारे में सोच सकते हैं। इसीलिए सरकारों के लिए भी टाटा के बहाने ये एक चेतावनी ही है कि खेतिहर समाज के धीरज का वे ज्यादा इम्तिहान ना लें।

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