Monday, December 28, 2009

पोस्टर छाप पोलटिक्स

कुल जमा तीन जन थे। रात कमर तक घनी हो चुकी थी और ठंड की ठिठुरन में उनका हाल बहुत बुरा नहीं तो बुरा तो कहा ही जाएगा। एक आदमी सीढ़ी लगाकर डिवाइडर पर बने पोस्ट लैंप पर पोस्टर टांगने की कोशिश कर रहा था, दूसरा सीढ़ी संभाले हुए था और तीसरा इधर-उधर छिटके पोस्टरों को समेट रहा था। दिल्ली प्रदेश कांग्रेस कमेटी के पोस्टर थे, जिन पर काफी बड़े आकार में राहुल गांधी मुस्कुरा रहे थे। इधर उधर छिटके पोस्टरों में राहुल बाबा का एक पोस्टर डिवाइडर से नीचे सड़क पर आ गया था, जिसपर चिपकाने वाले की नजर शायद गयी नहीं। कांग्रेस का भविष्य तो इस देश की जनता बांचेगी लेकिन कांग्रेसी जिसे अपना भविष्य मानते हैं, उनका पोस्टर करीब-करीब आधी रात को आईटीओ के चौराहे पर नई दिल्ली रेलवे स्टेशन की तरफ जाने वाली सड़क पर अपना धुल-धुसरित भविष्य देख रहा था। दिल्ली प्रदेश कांग्रेस कमेटी यानी डीपीसीसी के जिस अधिकारी ने राहुल गांधी का पोस्टर लगवाने का ठेका उन तीन मजदूर सरीखे लोगों को दिया होगा, उसकी ड्यूटी तो आदेश और पैसा देकर ही खत्म हो गयी होगी। पोस्टर टांगने और चिपकाने वालों ने भी अपना कर्तव्य रात बारह बजे तक पूरा कर लिया होगा और सड़क पर मोटर गाड़ी में बैठे हमारे आप जैसे लोगों की नजर पड़ गयी तो कुछ रोज तक कांग्रेस के मुस्कुराते भविष्य को सड़क पर टंगा हुआ देख हम आप भी अपना फर्ज निभा लेंगे। उसमें कितनी खुशी, कितनी उदासी, राम जाने!
लेकिन पोस्टर छाप पोलटिक्स में पोस्टर पर चेहरे और चेहरे के बखान में छपे दो शब्द ही कुछ चेहरों पर उदासी तो कुछ पर खुशियां बिखेर देते हैं। नौ साल पहले बैंगलोर में कांग्रेस का महाधिवेशन हुआ था। एक अखबार की रिपोर्टिंग के लिए मैं भी गया था। सेशन शुरु होने से एक दिन पहले होटल से कांग्रेस वाले उस जगह पर ले गये, जहां 21वीं सदी के कांग्रेस की रूप-रेखा तय होनी थी। वहां तमाम पोस्टर लगे थे। उनमें कहीं पर बेचारे नरसिम्हाराव नहीं थे, जो पांच साल तक कांग्रेस के अध्यक्ष और देश के प्रधानमंत्री रहे और प्रधानमंत्री रहते हुए कभी जिनके पोस्टरो से देश की दीवारें ढंक गयी थीं -चार कदम सूरज की ओर। पांचवे कदम पर सूरज तो छोड़िये, जनता की तपिश ने ऐसा झुलसाया कि फिर कभी बेचारे उठ नहीं पाए। बेचारे सीताराम केसरी भी नहीं दिखे, जिन्होंने अध्यक्ष बनने के बाद पहले नरसिम्हा राव को निपटाना शुरु किया और अपने बारे में कहना शुरु किया कि कांग्रेस अध्यक्ष व्यक्ति नहीं, संस्था होता है। इतिहास चक्र में ये तो थोड़े छोटे स्तर के लोग हो जाएंगे, ताज्जुब तो तब हुआ जब किसी पोस्टर पर गांधी और नेहरू तक नहीं दिखे। वैसे क्या तो कांग्रेस और क्या कांग्रेस का पोस्टर, जिस पर गांधी ना हों। क्योंकि गांधी का पोस्टर तो लोगों के दिलों पर चिपका होता है और वो आस्था की ऊंचाइयों पर टंगा होता है। उनकी तो बात ही छोड़िये लेकिन नेहरू तो वंशवादी कांग्रेस के पितृ-पुरुष हैं, उनको भी कांग्रेसियों ने नहीं पूछा। बस इंदिरा, राजीव और सोनिया। पोस्टर छाप पोलटिक्स में 21वीं सदी का कांग्रेस उस बुनियाद को भी भूल गया, जिसने बीसवीं सदी में देश को आजादी दिलायी और संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली को आत्मसात किया।
वैसे बचपन में भी ज्यादातर कांग्रेस के ही पोस्टर देखने को मिलते थे। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए लोकसभा के चुनावों में इंदिरा गांधी के बड़े बड़े पोस्टर उनके मरने से पहले के भाषण के साथ जगह जगह चिपकाए हुए मिलते थे। अपने इलाके में तो कांग्रेस से ज्यादा समाजवादियों का असर हुआ करता था। हमारे यहां चंदौली से जनता पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ रहे वीरेंद्र सिंह का प्रचार करने वाली एक जीप आई थी। उस पर चिपके एक पोस्टर पर नारा लिखा था- बिल्ला-पोस्टर आई का, वोट वीरेंदर भाई का। आई यानी कांग्रेस आई। अब जिसके पास पैसा होगा, पोस्टर तो उसके ही दमदार होंगे ना। तभी तो कांग्रेस वालों के पोस्टर ज्यादा चमकीले दिखते हैं या फिर बाद में भाजपा वालों के दिखने लगे। वैसे उसी बचपने में अपने गांव में एक बार संघ परिवार का भी पोस्टर देखने का सौभाग्य मिला। उस पोस्टर पर भारत माता की तस्वीर बनी हुई थी और अगल-बगल में हेडगेवार और गोलवलकर की तस्वीर थी। वो दोनो चेहरे मेरे जैसे तेरह साल के एक बच्चे के लिए अनजाने थे। हाई स्कूल के मैदान में उनका कार्यक्रम था, जहां कार्यक्रम के कर्ता-धर्ता से मैंने पूछा कि ये लोग हैं कौन। उस महानुभाव को मुझ नासमझ बच्चे के अज्ञान पर बड़ा गुस्सा आया और उन्होंने भुनभुनाते हुए जो कुछ कहा, उसका सार यही था कि अगर ये दोनो नहीं होते, तो ये देश नहीं होता, आजादी नहीं होती वगैरह। सुनकर जेहन में सवाल उमड़ा कि जब देश इनके बल पर बना तो फिर गांधी-सुभाष-भगत सिंह क्या कर रहे थे? बाद में समझ में आया कि कुछ लोग पोस्टर पर ही देश भी बना देते हैं, हमारी आपकी आजादी भी सुरक्षित कर लेते हैं और उनका पूरा योगदान ही पोस्टर में सिमट कर रह जाता है। जय हो!
वैसे पोस्टर लिखने का काम तो एक बार खुद को भी करना पड़ा। मजबूरी में नहीं, शौक से। बीएचयू के दिनों में डंकल और गैट के विरोध में जब समां बंधने लगा, तो मैं और मेरा रूम पार्टनर स्वदेशी जागरण मंच के लिए प्रचार करने लगे। अब कंप्यूटर पर टकटक करने से भले ही हाथ बिगड़ गया हो लेकिन तब अपनी हैंडराइटिंग बड़ी अच्छी थी। तो स्वदेशी अपनाने और देसी दिलो-दिमाग रखने वाले पोस्टर अपने हाथो से लिखकर हम दोनो चिपकाया करते थे। कभी बचपन में पढ़े राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की ये पंक्तियां ज्यादातर पोस्टरों पर हमारी भावनाओं को अभिव्यक्ति देतीं कि "गौरव की भाषा नई सीख, भिखमंगों की आवाज बदल। सिमटी बांहों को खोल गरुड़, उड़ने का अब अंदाज बदल। स्वाधीन मनुज की इच्छा से ऊंचे पहाड़ हिल सकते हैं। रोटी क्या वो अंबर वाले सारे सिंगार मिल सकते हैं।" उसी दौरान आरएसएस के तत्कालीन सर संघ चालकर राजेंद्र सिंह उर्फ रज्जू भइया बीएचयू में आए। सिर्फ संघियों के साथ ही उनकी बैठक थी। मेरा भले वास्ता ना रहा हो, लेकिन मेरा रूम पार्टनर तो उस वक्त पक्का हाफ पैंटी था। स्वदेशी का प्रचार तो हम कर रहे थे लेकिन मेरे जेहन में एक सवाल छिड़ा रहता था कि संघ के वरदहस्त वाली बीजेपी में जे के जैन जैसा व्यक्ति राज्यसभा का सदस्य कैसे है, जिसका टीवी चैनल भारतीय मान्यताओं के खिलाफ दिखाता है? सोचा कि सवाल रज्जू भइया से ही पूछा जाना चाहिए। संघियों की उस बैठक में अपने दोस्त के साथ मैं भी चला गया। ब्रोचा होस्टल के सामने वाले मैदान में 25-30 लोगों के बीच रज्जू भइया ने स्वदेशी पर बड़ा ज्ञान दिया। मेरा मन तो मेरे सवाल में ही भटका हुआ था। जब वो चलने लगे तो मैंने सवाल दाग दिया-रज्जू भइया, स्वदेशी तो ठीक है लेकिन जेके जैन के बारे में क्या कहेंगे? उन्होंने मेरी तरफ देखा जैसे हंसों की उस पंगत में कौआ कहां से आ गया और चुपचाप मारुति में बैठकर चले गए। मैं खुद को ठगा हुआ महसूस करने लगा और उस दिन से पोस्टरबाजी बंद।
लेकिन उससे क्या होता है? पोस्टर पर पोलटिक्स चमकाने वाले तो मानेंगे नहीं। लेकिन वो नहीं जानते कि लोगों का दिल पोस्टरों से ज्यादा भावनाओं से जुड़ता है। गांधी, जेपी, वीपी....किन-किनका नाम लें।

Friday, June 26, 2009

एसपी के बहाने

मैं कभी एसपी सिंह से आमने-सामने नहीं मिला। लेकिन दूरदर्शन पर आजतक के 20 मिनट के बुलेटिन से काफी पहले उनके नाम और चेहरे से वाकिफ हो चुका था और बहुत हद तक उनका प्रशंसक भी। पत्रिकाओं और अखबारों में छपने वाले उनके लेखों ने बताया कि वे एक बड़े पत्रकार हैं और उनके लेखों के समाजवादी रुझान ने मुझे उनका मुरीद बनाया। जब विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मंडल आयोग की संस्तुतियों को लागू किया तो पूरे देश में बड़ा हाय-तौबा मचा। मंडल आयोग की उस तपिश में बरसों तक कइयों की विचारधारा और कइयों का असली चेहरा झुलसता रहा। टीवी का चलन नहीं था और अखबारों में भी ज्यादातर मंडल का विरोध ही दिखता था। कभी खुल्लमखुल्ला तो कहीं लुका-छुपा के। उन्हीं दिनों एसपी का एक करारा लेख किसी पत्रिका (शायद इंडिया टुडे) में पढ़ा। पिछड़ों को कोसने वालों पर सीधा प्रहार करते हुए एसपी सिंह ने लिखा था कि बराबरी और समता की बात करने वाले अगड़ी जाति के लोग पिछड़ों पर जातिवादी होने का ठप्पा ऐसे लगाते हैं गोया सवर्ण तो जातिवादी होते ही नहीं। बड़ी बेबाकी से बात कही गयी थी और वह दिल को छू गयी। सोचा था कभी मौका मिला तो सामाजिक न्याय और समाजवाद के सवाल पर एसपी सिंह से जरूर बात करुंगा। लेकिन इस बात का बहुत अफसोस है कि ऐसा नहीं हो सका। उनके दौर का होकर भी उनसे मिल नहीं सका।
लेकिन यह सोचकर मन को सांत्वना मिलती है कि जिन लोगों ने एसपी से पत्रकारिता सीखी, उनके साथ रहकर काम किया, उनके सहयोगी रहे या फिर शिष्य, उन्होंने ही एसपी के व्यक्तित्व से कौन सी प्रेरणा ली? कहां रहा बेलौस होकर सच को सामने रखने का माद्दा? कहां रही पत्रकारिता को बुनियादी सवालों से जोड़ने की अकुलाहट? कहां रही पत्रकारिता की बनी-बनायी लीक को छोड़कर एक नई राह अपनाने की कोशिश? ये वो सवाल हैं, जिनका जवाब ढूंढ़ने की कोशिश ही मन को ये राहत देती है कि चलो हम नही मिले तो क्या हुआ। जो मिले, उन्होंने ही क्या कर लिया।

Thursday, June 25, 2009

अच्छे कल के लिए जरूरी है आपातकाल की याद

तब गुलामी थी और इंग्लैंड में विंस्टन चर्चिल जैसा अकड़ू प्रधानमंत्री था। चर्चिल ने भारतीयों की आजादी की मांग को यह कहकर नकार दिया कि अगर भारत को आजाद कर दिया गया तो भारतीय आपस में लड़कर ही मर जाएंगे। तब भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के सबसे बड़े शिखर पुरुष महात्मा गांधी ने कहा कि आजाद होकर हम चाहे मरें या जीयें, बस आप हमारा पिंड छोड़ दो। गांधी को अपने देश के व्यक्तित्व और देशवासियों की मानसिकता पर पूरा भरोसा था। लेकिन तीन दशक बाद उस भरोसे की बलि चढ़ाने की कोशिश उस इंदिरा गांधी की दिमाग से निकली, जो गांधी के सबसे करीबी और राजनीतिक उत्तराधिकारी माने जाने वाले जवाहरलाल नेहरू की पुत्री थीं। 25-26 जून 1975 की आधी रात को जब सारा देश सो रहा था, तब लोकतंत्र को सदा के लिए सुलाने की कोशिश हुई। समाज के आखिरी आदमी के हितों को ताक पर रख दिया गया। लोकनायक जयप्रकाश नारायण समेत विपक्ष के सारे नेताओं ने रातों-रात खुद को जेल की चारदीवारी के भीतर पाया। जिसने भी इंदिरा गांधी की करनी से थोड़ी भी नाइत्तफाकी रखी, वो सलाखों के पीछे पहुंचा दिया गया। चाहे वो कभी इंदिरा गांधी के खासमखास रहे चंद्रशेखर रहे हों या फिर हिंदुस्तान के तकरीबन सवा लाख लोग। ईसा मसीह को एक बार सूली पर चढ़ाया गया था, अपने यहां लोकतंत्र तो पूरे 635 दिनों तक सूली पर लटका रहा।
अब ये सवाल उठ सकता है कि 34 साल पुरानी लकीर पीटने का क्या मतलब है। आज देश चहुमुखी विकास का मुंह देख रहा है, जैसा कि सरकारी आंकड़े और सरकार के लोग ढिंढोरा पीटते हैं। विकास, तरक्की और चकाचौंध की इस दीवाली में आपातकाल की उदासी बहुतों को ऐसा ही लग सकता है, जैसे किसी ने उनकी खीर में नीबू निंचोड़ दिया हो। लेकिन आपातकाल की याद इस बात की तस्दीक कराने के लिए काफी है कि यह देश सत्ता के हुक्मरानों को अपने ठेंगे के नीचे रखने का माद्दा रखता है। लोकतंत्र में भले ही नव राजा-रानियों की संतानें आप पुष्पित-पल्लवित हो रही हैं लेकिन आखिरी आदमी की आवाज को नकारना आसान नहीं होगा। इसीलिए जिस दौर में सरकारें पूंजी की प्रवक्ता बनने में भी अपनी खुशकिस्मती समझ रही हैं, आपातकाल और उसके बाद इंदिरा गांधी का हश्र यह बताने के लिए काफी है कि लोकतांत्रिक मूल्यों और आखिरी आदमी की वेदना और संवेदना से खिलवाड़ मत करो। अभी तो 34 साल हुए हैं, जबकि 3400 साल बाद भी आपातकाल के खिलाफ उठी 34 साल पुरानी आवाज ऐसे ही गूंजती रहेगी।

Saturday, June 6, 2009

किन महिलाओं के लिए महिला आरक्षण ?

शरद यादव का मजाक बनना था, बना। निंदा होनी थी, हुई। महिला आरक्षण पर संसद में उनकी राय ने कइयों की कनपटी के नीचे एक आग सुलगा दी। आखिर चिंगारी भी तो दमदार थी। महिला आरक्षण पर संसद में जनता दल (एकीकृत) के नेता ने कहा कि महिला आरक्षण विधेयक उन्हें मौजूदा स्वरूप में मंजूर नहीं है। उनके पास संसद में दलबल भले ना हो लेकिन जैसे-तैसे यह विधेयक पास हो गया तो वह सदन में ही जहर खाकर जान दे देंगे-सुकरात की तरह। फिर तो बवाल मचना ही था। मच गया लेकिन ठंडे दिमाग और बड़े दिल के साथ कुछ सोचने के लिए शरद यादव ने कुछ सुलगते सवाल भी छोड़ दिये हैं।
पहला सवाल यह है कि महिलाओं को आरक्षण का मतलब क्या है? एक वाक्य में कहा जाए तो जवाब होगा- महिलाओं की बेहतरी, संसदीय लोकतंत्र में उनकी मजबूत भागीदारी और उनका सशक्तीकरण। लेकिन इस जवाब में ही एक दूसरा सवाल भी छुपा है कि किन महिलाओं का सशक्तीकरण, किनकी भागीदारी और किनकी बेहतरी? जाहिर तौर पर इस सवाल का जवाब उन महिलाओं के भीतर खोजा जाएगा, जो उपेक्षित-वंचित तबके से आती हैं। जिनकी पूरी जिंदगी पिछड़ा और नारी होने की दो पाटों के बीच पीसती रही है। जो पांच कोस जाकर पीने का पानी लेकर घर आती हैं। जिसके पास इतनी सामर्थ्य नहीं होती कि पति और बच्चों के साथ दो जून का भर पेट खाना खा सके। जो हर शाम पेट पर पुराना कपड़ा बांधकर सोने को अभिशप्त है। अब आप बताइए कि क्या महिला आरक्षण की कामधेनु उस दरवाजे पर नहीं बंधनी चाहिए, जिसे वाकई जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं की दरकार है? मन का दुराग्रह निकाल कर देखा जाए तो इस सवाल पर शरद यादव आपको सौ फीसदी सही दिखेंगे। गुजराल के समय में अपनी ही सरकार और अपने ही प्रधानमंत्री से वह दो दो हाथ संसद में ही कर चुके हैं।
अगर मौजूदा स्वरूप में ही महिला आरक्षण विधेयक पास हो गया तो भारतीय लोकतंत्र के नए राजवंशियों का ही कब्जा उन सीटों पर होगा, जो महिलाओं के लिए आरक्षित होंगी। जो ताकतवर राजनेता हैं, वे तो सामान्य सीटों पर चुनाव लड़ेंगे ही, आप देख लीजिएगा कि अपनी पत्नियों, बहुओं, बेटियों को वो महिला आरक्षित सीटों पर चुनाव लड़वाएंगे। यानी चित भी मेरी, पट भी मेरी और अंटी मेरी जेब में।
सत्ता की चाहत और राजनीति में खुद को बनाए रखने की अंतहीन लालसा ने शरद यादव को उस भाजपा के साथ बीते ग्यारह साल से खड़ा कर रखा है, जो महिला आरक्षण पर कांग्रेस के सुर में सुर मिलाती है। अब भाजपा के साथ आकर अपनी समाजवादी कमीज को शरद ने थोड़ी धुमिल भले कर दी है लेकिन समाजवाद का पुराना सत्व उनमें बाकी है। वही सत्व उन्हें कभी अपने प्रधानमंत्री गुजराल से भिड़ जाने की ताकत देता है तो अब मनमोहन सरकार से टकराने की। एक ईमानदार सवाल उठाकर शरद यादव ने बधाई पाने का काम किया है।

विचित्रमणि