Friday, August 29, 2008

कोसी कितनी दोषी?

(बिहार में बाढ़ पर ये छोटा सा आलेख एक नवोदित लेखक विकास कुमार सिंह का है। अपनी पीड़ा, वेदना और बिहार के जरिये इंसानी लोभ को उन्होंने उकेरने की कोशिश की है।)
कोसी की गिनती अल्हड़ और खुद ही अपनी लकीर खींचने वाली नदी के रूप में होती है। कब, कहां और कैसे वो अपना रास्ता बदल दे, ये कोई नहीं जानता। शायद वह नदी ये संदेश देना चाहती है कि प्रकृति को अपना काम करने देने हो और खुद को उसके मुताबिक ही ढालकर जीना सीखो। प्रकृति का सहचर बनो, उस पर हावी होने की कोशिश मत करो। लेकिन मनुष्य का स्वभाव ही हर जगह अपनी हेठी और खुद को बड़ा साबित करने का बन चुका है। बिहार में प्रलय का दूसरा नाम बनकर जो बाढ़ आई है, उसने एक बार फिर कोसी को चर्चा का केंद्र बिंदु भी बना दिया है। कोसी ने पूरी तरह अपनी राह बदल ली। इससे बाढ़ और प्रलयंकारी हो गयी। उसकी छवि एक बेहद आवारा नदी की बन गयी और उसके पाश में बिहार के कमोबेश दस जिले जिंदगी की पनाह मांग रहे हैं।
कोसी पर बना भीमनगर का बांध अतिरिक्त जल का दबाव नहीं सह पाया और वह टूट गया। ऐसा बार बार कहा गया लेकिन क्या सच्चाई सिर्फ इतनी ही है। उस तटबंध में दरार और थोडा बहुत पानी रिसना तो अगस्त के बिल्कुल शुरु में ही शुरू हो गया था। लेकिन तब तक उस पर ध्यान नहीं दिया गया, जब तक हालात हाथ से निकल नहीं गया। १५ अगस्त को जब पूरा देश आजादी की सालगिरह मना रहा था, तब उत्तर बिहार के बाढ़ प्रभावित लोगों को साफ दिखने लगा था कि मौत उन्हें गुलाम बनाने आ रही है। लेकिन वो स्थिति नहीं बनती, अगर तटबंध पर पहले ही ध्यान दिया गया होता।
अब सवाल है कि आगे क्या होगा। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने इसे राष्ट्रीय आपदा घोषित कर दिया, लाखों टन अनाज पहुंच गये और सेंटर से एक हजार करोड रूपये भी। इतने रूपये देखकर अनायास वरिष्ठ पत्रकार पी साईनाथ की किताब एवरीबडी लव ए गुड ड्राउट की याद आती है, जिसमें बताया गया है कि कैसे नेता और अफसर बाढ़ और सूखे का इंतजार करते हैं ताकि राहत के नाम पर मिला पैसा उनकी अंटी में चला जाए। क्या बिहार के मामले में भी यही नहीं होगा? महीने दो महीने में लोग भूल जाएंगे कि कुछ समय पहले ही बिहार विनाश के कगार पर बैठा था।
आज जो अधिकारी कोसी को दोषी ठहरा रहे हैं, सच पूछिये तो मन ही मन वो अतिशय प्रसन्न होंगे क्योंकि राहत फंड से उनकी तमाम चाहत पूरी होगी। आखिर इस देश को किसी नदी की बनती बिगड़ी धारा नहीं, बल्कि भ्रष्टाचार की आवारा रफ्तार ही बर्बाद कर रही है।

Monday, August 25, 2008

कॉर्पोरेट नागरिकता जिंदाबाद!

विलासराव देशमुख हमेशा मुस्कुराते रहते हैं। इसमें कोई बुराई भी नहीं है बल्कि अच्छा है कि सेहत दुरुस्त रहे। क्या पता, ६३ साल की उम्र में भी नौजवानों की तरह चमकते दमकते रहने के पीछे एक बड़ा कारण ये भी हो। उनकी मुस्कुराहट कुछ इंच और बढ़ गयी है, जबसे सुना है कि रतन टाटा सिंगूर से अपनी नैनो प्रोजेक्ट को हटाने की चेतावनी दे चुके हैं। लगे हाथ महाराष्ट्र के महापराक्रमी मुख्यमंत्री ने कह दिया कि आइए टाटा, हम करते हैं आपका स्वागत। हम आपको देंगे जमीन। जरूर दीजिए जमीन लेकिन कीमत क्या होगी? करोड़ों का वारा न्यारा या फिर किसानों की मुसीबत? क्या ऐसा नहीं होगा कि सिंगूर के किसानों का दर्द अब विदर्भ के किसानों में गुणात्मक बढोत्तरी के साथ उभकर सामने आएगा?
आखिर महाराष्ट्र के विदर्भ में जमीन बिक रही है। किसानों की हालत खराब है और चिदंबरम साहब का ६० हजार करोड़ का महादान भी उनकी गाड़ी को पटरी पर ला नहीं पा रहा है। ऐसी खबर बार बार आती है कि नागपुर से अकोला के बीच कर्ज के मारे किसाने अपनी जमीन औने पौने दामों पर बेचने को तैयार हैं। वहां आलम ये है कि दस फीसदी लोग भी ऐसे नहीं हैं, जिन्हें भर पेट पौष्टिक भोजन मिलता हो। कमोबेश सभी परिवार कर्ज से दबे हैं और इसे सिर्फ कहावत मत समझिएगा बल्कि कड़वी सच्चाई है कि नमक रोटी पर उनका गुजारा चलता है और वो भी भर पेट नहीं मिलता। रोजगार गारंटी योजना को लेकर कांग्रेसी चारणवृंद जब तब राहुल गांधी की जयजयकार करते हैं और खुद कांग्रेस के युगपुरुष राहुल जी महाराज संसद में शशिकला और कलावती के बहाने विदर्भ और किसानों पर घड़ियाली आंसू बहा चुके हैं। बावजुद इसके विदर्भ के ज्यादातर इलाकों में रोजगार गांरटी योजना शुरु नहीं हो पायी है। अब ऐसे में जमीन बेचकर किसान से खेतिहर मजदूर और फिर मजदूर होते हुए भिखारी बनने या फिर खुदकुशी करने के अलावा उन किसानों की नियति में और क्या हो सकता है। लेकिन उन किसानों की वेदना से खुद को जोड़ने की सच्चे मन से किसी राजनेता ने क्या कोशिश की? करीब चार साल से मुख्यमंत्री की कुर्सी पर विराजमान देशमुख ने ही कहां कुछ सोचा। टाटा के लिए जाजम की तरह बिछने को बेताब मुख्यमंत्री बखूबी जानते हैं कि पैसा तो धनपशुओं से मिलेगा और आज राजनीति की सार्वभौमिक सच्चाई बन गया है अनाप शनाप पैसा।
हालांकि बुद्धदेव भट्टाचार्य जिस तरह टाटा को मनाने में लगे हैं, उससे लगता नहीं कि सिंगूर की नैनो महाराष्ट्र में सजने संवरने जा पाएगी। लेकिन देशमुख जी, घबराने की बात नहीं है। कोई दूसरा टाटा किसानों की जमीन खरीदने आ जाएगा और आप की सरकार करेगी बिचौलिये का काम। किसान गए भाड़ में, कॉर्पोरेट नागरिकता जिंदाबाद!

Sunday, August 24, 2008

कॉर्पोरेट नागरिक बनोगे!

तो सुना आपने, महान देशभक्त रतन टाटा क्या कह रहे हैं? हर अखबार का पहला पन्ना और उसकी कमोबेश पहली खबर उनकी इस धमकी से बनी थी कि बहुत हुआ, अब बर्दाश्त नहीं करेंगे और किसान नहीं माने तो वो सिंगूर को टा टा बोल देंगे। अब देश की नइय्या पार लगाने वाले रतन टाटा जी महाराज ने धमकाया या चेतावनी दी तो खुद को सर्वहारा का प्रतिनिधि बताने वाली पश्चिम बंगाल की सरकार सीधे शीर्षासन पर उतर आयी। दूसरी तरफ महाराष्ट्र से लेकर उत्तराखंड तक के मुख्यमंत्रियों ने टाटा को नयनों में बसा लिया और उनकी सिंगूर वाले प्रोजेक्ट को अपने सूबे में लगाने का न्यौता दे दिया। यानी लाल सलाम से लेकर दलाल सलाम के जरिये सरकार बचाने वाली कांग्रेस और पार्टी जरा हटके भाजपा तक टाटा के स्वागत में जाजम की तरह बिछ गये। आखिर कहीं तो सियासतदानों ने एकजूटता दिखाई। धन्य हैं।
होगी नेताओं के लिए ये चिंता की बात कि सिंगूर में किसानों के विरोध से टाटा दुखी हो गये और सि्गूर छोड़ने की उन्होंने धमकी दे दी। लेकिन असल चिंता कुछ और भी है। २१ अगस्त को कोलकाता में रटन टाटा ने कहा कि ये कोलकाता को तय करना है कि उसे अवांछित नागरिक चाहिए या अच्छा कॉर्पोरेट नागरिक। इशारों में रटन टाटा ने वामपंथियों को भी धमका दिया कि अगर लाल सरकार की पुलिस के होते हुए भी सिंगूर का उनका किला महफूज नहीं रहता तो फिर वो सरकार निकम्मी है। टाटा चाहें तो बुद्धदेव भट्टाचार्य को गरिया सकते हैं, हमको आपको दिखाने के लिए भी। लोगों के सामने तो मजनूं को लैला बुरा बोल ही देती है। लेकिन हम जिस समाज में जीते हैं, उसका मानस कौन तय करेगा? हमें कैसा नागरिक बनना है, वो कौन बताएगा? हम कैसा समाज हैं, इसका सर्टिफिकेट कौन देगा? हमें भारतीय नागरिक बनना है या टाटा जी का कॉर्पोरेट नागरिक, ये कौन तय करेगा? आखिर हम अपना नफा नुकसान देखने वाले एक बनिये के बताए रास्ते पर चलेंगे या फिर उस रास्ते पर दो डेग भरने की जहमत उठाएंगे, जिसे हमारे महान राष्ट्रपिता ने बनाया है?
किसानों की पीड़ा है कि कोलकाता से महज ४० किलोमीटर दूर सिंगूर में उनकी जमीन टाटा के लिए सरकार ने जबरन हथियाई। उनका ये भी कहना है कि वो जमीन उपजाऊ है और उस पर बाप दादा के जमाने से वो खेती करते आ रहे हैं। जमीन के मुआवजे से पांच लाख रुपये मिल ही गये तो उससे उनका क्या होगा। आखिर अपनी जड़ और जमीन से उखड़कर वो क्या करेंगे। यकीकन पहले वो किसान थे, फिर खेतिहर मजदूर बनेंगे और उसके बाद ठेठ मजदूर, जिनकी ना तो कोई जमीन होगी, ना सपनों का आसमान होगा। क्या टाटा के पांच लाख रुपल्ली से उनकी जिंदगी चल जाएगी? दूसरी बात ये है कि कॉर्पोरेट कल्चर के बाद कॉर्पोरेट नागरिक बनाने चले रतन टाटा ने जिन किसानों की जमीन ली, क्यों नहीं उन्हें अपनी कंपनी का शेयरधारक बना दिया। तब समझ में आता कि लेवल पर कॉर्पोरेट कल्चर बह रहा है और देश भी देखता कि उद्धारक का लिबास ओढ़े एक उद्योगपति मानवीय संवेदना से भी भरा है। आखिर गांधी ने ट्रस्टीशीप के सिद्धांत में इसी बात पर ही तो बल दिया था। क्यों नहीं सरकारें गांधी की बात को कबूल कर लेती हैं? आखिर ये देश गांधी के सपनों और संघर्षों से निकला है, टाटा और उनके इशारों पर ता ता थैया करने वाली सरकारों के कमाऊ खाऊ और खून पीऊ नीतियों से नहीं।
लिहाजा किसानों को कॉर्पोरेट नागरिक बनवाने निकले रतन टाटा को चाहिए कि पहले खुद एक साफ सुथरा नागरिक बनें। वो नागरिक, जिसकी आत्मा इस देश की रीढ़ माने जाने वाले किसानों का खून निचोड़कर खुश ना होती हो। तब वो अपना कॉर्पोरेट चलाएं। होंगे रतन टाटा बहुत बड़े देशभक्त लेकिन मैं ये मानने को तैयार नहीं कि किसानों से ज्यादा वो देश की बेहतरी कर सकते हैं या उसके बारे में सोच सकते हैं। इसीलिए सरकारों के लिए भी टाटा के बहाने ये एक चेतावनी ही है कि खेतिहर समाज के धीरज का वे ज्यादा इम्तिहान ना लें।