धमाके हमारी नियति बनते जा रहे हैं। जिस तरह भ्रष्टाचार को हमने अपनी जिंदगी का हिस्सा बना लिया है, उसी तरह बम धमाके भी धीरे धीरे हमारे मानस में छठे छमाहे होने वाले हादसे की तरह पैठ बनाते जा रहे हैं। कभी बनारस में हुआ, कभी मुंबई में तो कभी दिल्ली तो कभी हैदराबाद, मालेगांव, जयपुर, बैंगलोर, अहमदाबाद...बम धमाकों और मासूमों की लाश और बेबसी गिनते अनंत सवाल। पहले डर लगता था, अब वो डर एक ऐसी पीड़ा की शक्ल ले चुका है, जिसमें पोर दर पोर टूटना ही लिखा है। जैसे छोटे से घाव के रिसने पर कराहने वाला आदमी कैंसर का असह्य कष्ट झेलने लगता है। अहमदाबाद और बैंगलोर की वो पीड़ा हमारे समाज के उसी कैंसर से निकला है, जिसका इलाज करने की हमने जहमत ही नहीं उठायी। दुर्भाग्य ये है कि अभी भी खांसी जुकाम की दवा से उस मरीज को जिलाने की हसरत पाले हुए हैं। क्या ये सच नहीं है कि जैसे मुंबई, बनारस, दिल्ली और दूसरे बम धमाकों और उसमें खोयी जिंदगियों का गम अब हमारे जेहन में नहीं है, वैसे ही कल हम बैंगलोर और अहमदाबाद को भी भुला देंगे? वेदना की इस घड़ी में ये कहना मर्म पर चोट पहुंचाने वाला जरूर लग सकता है, लेकिन हम सब दो तीन दिन में अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेंगे। अहमदाबाद में सोनिया गांधी पहुंची, मनमोहन सिंह पहुंचे, नरेंद्र मोदी पहुंचे। दो चार दिन तक जाने-अनजाने नायकों का वहां जाना लगा हुआ है। सब रटी रटायी बात कर रहे हैं। भाजपा कांग्रेस को कोस रही है, कांग्रेस भाजपा को।
लेकिन हमारे समाज का मानस क्या सोचता है? मेरे एक मित्र, जिनकी रा और आईबी में काफी पैठ है, एक बार बता रहे थे कि मुंबई और दूसरी जगहों पर बम धमाके करने वाले कुछ आतंकवादियों से पूछा गया कि वो ऐसा क्यों करते हैं। तो जवाब आया कि २००२ के गुजरात दंगों का बदला लेने के लिए। लेकिन २००२ के दंगे तो नरेंद्र मोदी के राज में हुआ था, लिहाजा बदला तो गुजरात में लिया जाना चाहिए। लेकिन वहां तो धमाका होता नहीं। पकड़े गये एक आतंकवादी का कहना था कि अगर हमने गुजरात में कुछ किया तो मोदी एक एक कर मुसलमानों को मरवाना शुरु कर देंगे, जैसा कि छह साल पहले हुआ था। पूछने वाले अधिकारी का निष्कर्ष था कि मोदी का डर गुजरात को आतंक की आग से बचाए रखेगा। लेकिन अहमदाबाद में बहे खूनों ने उस निष्कर्ष को लहूलुहान कर दिया है। क्या इससे एक धुंधली तस्वीर ये नहीं बनती कि सिर्फ कड़ाई या चतुराई दिखाने से आतंकवाद दूर नहीं हो सकता। मोदी गुजरात के एक बड़े हिस्से को ये एहसास तो दिला सकते हैं कि उनके राज में कुछ नहीं होगा लेकिन अंदर से उनका साहस और खुफिया तंत्र भी सड़ा हुआ है।
हर धमाके के बाद एक सवाल ये भी उठता है कि आतंकवादियों को स्थानीय लोगों का प्रश्रय मिला था। बात सही है और जब ये सवाल उठता है तो उंगली स्थानीय मुसलमानों की तरफ ही उठती है। दंगों में वो भी बहुत कुछ गंवाते हैं लेकिन उनकी पीड़ा इस मामले में थोड़ी अलग होती है कि वो ना सिर्फ अपनों का जनाजा उठाते हैं, बल्कि सशंकित नजरों से देखे जाने का असहनीय बोझ भी वो उठाते हैं। बीस साल पहले भारत में जम्मू-कश्मीर को छोड़कर कोई भी इलाका आतंकवाद की वैसी चपेट में नहीं रहा, जैसा कि अब है। पंजाब, असम और उत्तर पूर्व की कुछ आतंकवादी गतिविधियां उन धमाकों से जुदा हैं, जो हर कुछ महीनों पर हमें भोगना पड़ता है। अगर ये मान भी लिया जाए कि आतंकवादी स्थानीय मुसलमानों को मजहब के नाम पर बरगलाते हैं तो भी वैसे माहौल के लिए क्या देश के कुछ स्वनाम धन्य बड़े नेता दोषी नहीं हैं? हिंदुस्तान में हिंदू-मुसलमान की लड़ाई काफी पुरानी है। अब धमाके होते हैं, पहले दंगे होते थे। जो रिकॉर्ड है, उसके मुताबिक पहला दंगा १७९२ या ९३ में होली के समय हुआ था और वो भी गुजरात के तटीय इलाके में। उसके बाद भी दंगे फसाद होते रहे, हिंदुओं और मुसलमानों में जब तब ठनती रही लेकिन उनकी ये लड़ाई कुछ वैसी ही थी, जैसे दो चचाजात भाइयों में होती है। जमीन जायदाद के मसले पर होने वाली छोटी मोटी लड़ाई, जो धीरे धीरे फिर से प्यार और मनुहार में बदल जाती है। लेकिन ६ दिसंबर १९९२ को अयोध्या में जो कुछ हुआ और मर्यादा के पुरुषोत्तम भगवान राम के नाम पर हुआ, उसने दिलों में दरार पैदा कर दिया। मंदिर और मस्जिद टूटे तो वो जुड सकते हैं लेकिन भरोसे वाला दिल दरक जाए तो फिर उसका जुड़ना मुश्किल हो जाता है। उस घटना के बाद से ही हिंदू मुसलमानों में एक तीक्ष्ण विभेदक दूरी बन गयी या बना दी गयी।
अब उसके लिए दोषी कौन है? बगैर किसी लाग लपेट के कहा जाए तो कांग्रेस और भाजपा। इन दोनो पार्टियों में भेद करना उतना ही मुश्किल है, जितना मुश्किल खुद भगवान राम के लिए बालि और सुग्रीव में भेद करना था। जिस तरह दोनो की शक्ल हू ब हू मिलती थी, वैसे ही कांग्रेस और बीजेपी भी हु ब हू मिलते हैं। नई सोच वाले नई उम्र के प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने अयोध्या में अनायास और नाहक राम जन्मभूमि का ताला खुलवा दिया और लाल कृष्ण आडवाणी की अगुवाई में बीजेपी के कारसेवकों (या संहारसेवकों) ने राम जन्मभूमि बाबरी मस्जिद का ढांचा गिरा दिया। मौनी बाबा बने रहने वाले कांग्रेसी प्रधानमंत्री नरसिम्हाराव ने गुप चुप तरीके से भाजपा का साथ दिया। राव के बारे में यूं ही नहीं कहा जाता था कि धोती के नीचे वो आरएसएस का हाफ पैंट पहनते थे।
आपको लग रहा हो कि विषयांतर हो रहा है। कहां तो हम धमाके की बात कर रहे थे और कहां उस धमाके को भाजपा और कांग्रेस पर पटक रहे हैं। लेकिन ये बात हम इसलिए कर रहे हैं कि देश की दोनो मुख्य पार्टियों ने कभी जनमत को साफ सुथरा बनाने की कोशिश नहीं की। अगर धर्म के नाम पर विभाजन और वोट के लिए बांग्लादेश से घुसपैठ पर इन्होंने सुदृढ़ इच्छा शक्ति के साथ काम किया होता तो हर आए दिन आतंक की आग में झुलसने के लिए ये देश अभिशप्त नहीं होता। आखिर जब तक हमारे मन का आतंकवाद नहीं मरेगा, पोटा या सोंटा या गोली बारूद से आतंकवाद का खात्मा नहीं हो सकता। क्या हम इसके लिए तैयार हैं? अभी तो कुछ कहते हुए भी मौन प्रार्थना ही की जा सकती है।
Monday, July 28, 2008
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1 comment:
दुर्भाग्यपूर्ण स्थितियाँ.
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