करार पर सरकार आफत में फंस गयी थी लेकिन अमर सिंह जैसे स्वनामधन्य नेता की मेहरबानी और मदद से मनमोहन सिंह की नैय्या पार लग गयी। कहां तो मीडिया के जानकार और पंडिता दम साधकर २७० के आंकड़े तक सरकार को पहुंचा रहे थे और कहां मनमोहन ने ऐसी हनुमान कूद लगाई कि सीधे २७५ तक पहुंच गये। अर्थात सरकार को मिला पूर्ण बहुमत। मनमोहन मुग्ध हुए, सोनिया प्रसन्न हुईं और अमर सिंह की अमर साधना पूर्ण हुई। अब सरकार आराम से परमाणु करार कर लेगी।
लेकिन सवाल है कि जिन माननीय सांसदों के आचार व्यवहार को लेकर खुद सरकार तक को भरोसा नहीं था कि वो क्या करेंगे, उनको लेकर बाजार कैसे भांप गया था कि सरकार नहीं जा रही है। आडवाणी के शब्दों में जिस समय सरकार आईसीयू में जिंदगी और मौत के बीच झूल रही थी, उस वक्त बाजार कुंलाचे मार रहा था और दोनो दिन ही शेयर सूचकांक में इजाफा हुआ। तो क्या ये ना माना जाए कि सरकार को चुनने वाली जनता भले गफलत में रही हो, उसे भले ही सरकार के वजूद को लेकर शक सुबहा रहा हो, लेकिन बाजार किसी असमंजस में नहीं था। ये अकारण नहीं है कि अनिल अंबानी के दोस्त अमर सिंह सरकार बचाने के लिए सांसदों के जोड़ तोड़ में जुटे थे तो दूसरी तरफ अनिल के बड़े भाई और व्यावसायिक प्रतिद्वन्द्वी मुकेश अंबानी ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से एकांत में मुलाकात किया। फिर वो मुलाकात त्याग की देवी सोनिया गांधी से भी हुई। उसके बाद बड़े उद्योगपति राहुल बजाज ने जो बयान दिया, उससे भी साफ हो गया कि सरकार पर संकट नहीं है। लेकिन अपने बयान में राहुल बजाज ने ये भी जो़ड दिया कि बगैर वामपंथियों के सरकार चले तो ये ज्यादा बेहतर है।
मैं वामपंथी नहीं हूं लेकिन चार साल से सरकार को सहारा देने वाले वामपंथियों की मौजूदगी तमाम बजाजों को क्यों अखर जाती है। इसकी तरफ तो माकपा के सांसद मोहम्मद सलीम ने अपने भाषम में साफ इशारा कर दिया था। सलीम ने दो टूक कहा कि उन्होंने तो मनमोहन सिंह को लीडर समझा था लेकिन वो तो डीलर निकले। रही बात नफा नुकसान की नजरों से ही पूरे कायनात को देखने वाले उद्योगपतियों की, तो उन्हें लीडर नहीं, डीलर चाहिए। इसीलिए बजाजों, अंबानियों, टाटाओं, बिड़लाओं, हिंदुजाओं, मित्तलों को अमर सिंह चाहिए, जिसकी कोई जमीनी हैसियत ना हो। ये हमारे समाजवादी आंदोलन का दुर्भाग्य है कि मुलायम सिंह यादव जैसा धरतीपुत्र अमर सिंह के हाथों की कठपुतली बन गया।
विषयांतर ना हो, लिहाजा मूल विषय पर लौटते हैं। याद कीजिए कि झारखंड मुक्ति मोर्चा के चार सांसदों के १९९३ में तत्कालीन पीवी नरसिम्हाराव सरकार ने खरीदा था। मामला खुला तो नरसिम्हाराव की कैसी भद्द पिटी। पिछले पंद्रह साल में तमाम प्रदूषण और कचड़े के बावजूद यमुना में काफी पानी बह चुका है। तब चार सांसदों पर हाय तौबा मची थी लेकिन आज ना जाने कितने सांसदों की बोली लगी, कितने सांसदों को कागज के चंद मोटे टुकडों पर खरीदा बेचा गया लेकिन सरकार बचाने वाले मनमोहन सिंह अब भी ईमानदारी के पुतले बने हुए हैं। सरकारें आती हैं, जाती हैं लेकिन सरकार का इकबाल एक बार चला जाए तो वो दोबारा नहीं लौटता। लेकिन हमारा खाया पीया अघाया समृद्ध तबका मनमोहन और सोनिया के भ्रष्टाचार और गंदगी में आपादमस्तक डूबकर सरकार बचाने की अमर्यादित करनी को नहीं देखता।
समाजवादी नेता डॉ राम मनोहर लोहिया कहा करते थे कि जिंदा कौम पांच साल तक इंतजार नहीं करती। लिहाजा इस सड़ी गली सरकार का चला जाना बहुत जरूरी था। लेकिन दुर्भाग्य इस बात की है कि उस लोहियावादी राजनीति की उपज और खुद को समाजवादी कहने वाले मुलायम, लालू, रामविलास इस सरकार के जयकारे में जुटे हैं, जिसकी अगुवाई वर्ल्ड बैंक का एक भूतपूर्व नौकर कर रहा है।
Tuesday, July 22, 2008
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2 comments:
किन लोगों के आगे बीन बजा रहे हैं..सब सियासत में मगन हैं वो!!
democracy in india has never faced such a big crisis. No one can imagine that on discussing on n-deal our parliament will witness some dealers, who can buy everything, hamaara zameer bhi.
sanjay kumar
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