जब बहुत से लोगों को, खासकर पढ़े लिखे और बुद्धिजीवी किस्म के लोगों को, ये कहते-सुनते-लिखते देखता हूं कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह बड़े ईमानदार और मानवीय सरोकारों से परिपूर्ण व्यक्तित्व हैं, तो मेरी भी इच्छा होती है कि अपने प्रधानमंत्री जी की तारीफ का भागीदार बनूं। एक दो रोज पहले ही कहीं पढ़ा कि कैसे मनमोहन सिंह के घर के लोग करीब तीन साल पहले एक क्रिकेट मैच के लिए कतार में खड़े होकर टिकट खरीदने गये थे। इस घटना को प्रधानमंत्री की असंदिग्ध ईमानदारी से जोड़कर देखा गया। वैसे ही कुछ समय पहले मेरे एक मित्र ने प्रधानमंत्री का बायोडाटा मुझे मेल किया था। उसमें उनकी विद्वता का बखान करते हुए आखिर में एक नोट लिखा गया था कि क्या ऐसा विद्वान प्रधानमंत्री किसी और देश को नसीब है।
वाकई प्रधानमंत्री की इस तारीफ पर बलैया लेना चाहिए लेकिन क्या किया जाए। चलताऊ और व्यक्तिगत खूबियों के बूते किसी राष्ट्र का नक्शा नहीं बदलता, वैसे ही मनमोहन सिंह के घर वालों के कतार में खड़े होने और उनके महान बायोडाटा से भारत का बायोडाटा चमकीला नहीं हो जाता।
प्रधानमंत्री में आखिर क्या गुण होने चाहिए। बहुत पहले तुलसी दास ने लिखा था- मुखिया मुख सो चाहिए खान-पान को एक। पाले पोसे अंग सकल, तुलसी सहित विवेक। अर्थात मुखिया को मुख की तरह ही शरीर के हर अंग का बराबर खयाल रखना चाहिए। बस इसी कसौटी पर प्रधानमंत्री को कसा जाए तो क्या वो देश का मुखिया बने रहने के हकदार हैं। एक सरकारी रिपोर्ट के मुताबिक ही इस समय देश के ८४ करोड़ से ज्यादा लोग हर रोज बीस रुपये से भी कम कमाते हैं। अब सोचिये कि जब महंगाई माउंट एवरेस्ट को छूने पर आमादा हो, उस समय ६०० से भी कम में महीने का गुजारा कैसे मुमकिन होगा। क्या लोगों की बेचैनी, उनकी बेबसी ने कभी प्रधानमंत्री के आंखों से उनकी रातों की नींद चुरायी है। क्या कभी उन्होंने सोचा है कि भारत माता ग्राम वासिनी वाले हिंदुस्तान में गांव बदहाली और तंगी का दूसरा नाम बन चुके हैं और विषमता अंग्रेजों के जमाने से भी ज्यादा बढ़ गयी है। दूसरी तरफ देश में अरबपतियों-खरबपतियों की संख्या बढ़ती जा रही है और उसे एक शक्तिशाली भारत का नाम दिया जा रहा है। आखिर ये विषमता विद्वान और ईमान वाले प्रधानमंत्री की साख और सम्मान में बट्टा नहीं लगाती।
कहते हैं कि पहली मर्तबा हरियाणा के मुख्यमंत्री बनने के बाद वंसीलाल ने अपने दफ्तर में राज्य का मानचित्र देखकर बड़े बड़े अफसरों को बुलाया। उनसे पूछा कि नक्शे पर हरे रंग का क्या मतलब है, सफेद रंग का क्या अर्थ निकलता है और ये लाल रंग क्या इंगित करता है। अधिकारियों ने बताया कि हरा रंग बताता है कि राज्य का वो इलाका सिंचाई के साधनों से भरा है और वहां अच्छी फसल होती है। मुख्यमंत्री ने फरमान सुनाया कि बहुत जल्द ही पूरे नक्से को हरा करके दिखाओ। अधिकारियों के हाथ पांव फूल गये, उन्होंने कहा कि ये इतनी जल्द मुमकिन नहीं। लेकिन वंसीलाल टस से मस नहीं हुए और आखिरकार लाल फीताशाही के आदी हो चुके अफसरों को जी जान से काम में जुट जाना पड़ा। वंसीलाल की गिनती मनमोहन सिंह की तरह निपट ईमानदार नेता में नहीं होती लेकिन उनकी दृढ़ता ने वो करवा दिया, जिस पर अफसर नाक-भौं सिकोड़ने लगते हैं। क्या प्रधानमंत्री वैसा कर सकते हैं?
नहीं कर सकते। आखिर उसी अफसरशाही की उपज ये भी हैं और इसीलिए बाबुओं के बूते ही देश का भला होते देखना चाहते हैं। अगर वैसा हो जाता, तो इसमें कोई बुराई नहीं थी लेकिन ऐसा दिखता नहीं। आखिर बाबुगिरी का ही तो असर था, जो तीन साल पहले ब्रिटेन जाकर प्रधानमंत्री जी ने अंग्रेजों की तारीफ में ये कह दिया कि अगर आप नहीं आए होते तो हम ना तो अनुशासित हो पाते, ना ही सभ्य। ये बयान था उस देश के प्रधानमंत्री का, जो अपने पांच हजार साल की सभ्यता को भूल गये थे और उनकी तारीफ कर रहे थे, जिन्होंने दो सौ साल तक इस देश को रौंदा था। वो तो एक अधनंगे फकीर का पराक्रम काम कर गया, नहीं तो प्रधानमंत्री जैसे लोग उन्हीं अंग्रेजों के राज में हाइली-पेड बाबू होते।
लोकतंत्र सही मायने में तभी निखरकर आता है, जब उसका नेता लोगों की तरफ से चुना होता है। लेकिन मनमोहन सिंह तो चुनाव लड़ना ही नहीं जानते। जिस जनता के नाम पर घड़ियाली आंसू बहाते हैं, उनके बीच जाकर उनसे जनमत मांगने में ही डर लगता है। और ले देकर एक बार १९९९ में दक्षिण दिल्ली से लोकसभा का चुनाव लड़ा था। तब प्रचार के दौरान बार बार ये दुहाई देते थे कि अगर चुनाव नहीं जीते तो राज्य सभा से इस्तीफा दे देंगे। लोगों ने सोचा कि चलो, आजमाकर देख ही लेते हैं। मनमोहन सिंह को हरा दिया। इन्होंने इस्तीफा नहीं दिया, बल्कि राज्यसभा के उसी गलियारे से उठाकर सोनिया गांधी ने इन्हें प्रधानमंत्री बना दिया।
लोकतंत्र का इससे बड़ा मजाक नहीं हो सकता कि लोकतांत्रिक तरीके से चुने गये प्रधानमंत्री की जगह एक नियुक्त प्रधानमंत्री हुकूमत चला रहा है। चूंकि हमारा अभिजात वर्ग अंग्रेजों के जमाने के बाबूगीरी और नौकरशाही के संस्कार से बाहर नहीं निकला है, लिहाजा मनमोहन सिंह उनके मन को मोह लेते हैं। लेकिन बात इतने पर ही नहीं रुकती। अमेरिका के साथ असैन्य परमाणु करार को लेकर प्रधानमंत्री ने जिस तरह की हठधर्मिता दिखायी है, उसका मकसद क्या है। क्या ये इतना महत्वपूर्ण सवाल था कि जिन कम्युनिस्टों के बूते चार साल से ज्यादा वक्त तक आपकी सरकार खींच गयी, उन्हें मसौदा तक नहीं दिखाया। आखिर जिद, गुस्सा, झल्लाहट और राष्ट्रीय सरोकारों को परे ढकेल कर खुद को अमेरिकापरस्त बनाने की ये मानसिकता देश को कहां ले जाएगी।
अब ये हमारा आपका दुर्भाग्य है या सौभाग्य... ये सोच लीजिए।
3 comments:
"लोकतंत्र सही मायने में तभी निखरकर आता है, जब उसका नेता लोगों की तरफ से चुना होता है। लेकिन मनमोहन सिंह तो चुनाव लड़ना ही नहीं जानते। "
यदि लोकसभा चुनाव जीतना ही एकमात्र कसौटी है तो बंधु आपकी नजर में मायावती, लालू यादव, मुलायम सिंह, पप्पू यादव, शहाबुद्दीन, शिबू सोरेन, भजन लाल, डीपी यादव, अजित सिंह, सज्जन कुमार, कुमारस्वामी, रामविलास पासवान, जार्ज बुश, परवेज मुशर्रफ, राबर्ट मुगाबे आदि ने तो लोकतंत्र को सही मायनों में निखार दिया होगा।
कृपया मनमोहन सिंह का भाषण पढ़ें: http://www.rediff.com/news/2005/jul/12spec.htm ।
अपना भाषण उन्होने अंग्रेजों के राज की बुराई के साथ ही आरंभ किया था। अच्छाइयां भी बतानी पड़ी क्योंकि ये हम भारतीयों की या तो आदत है, या विवशता। प्रधानमंत्री होने के नाते उन्हें ये शोभा नहीं देता कि किसी दूसरे देश में मेहमान बनकर जायें और उन्हीं की बुराई करें। ऐसा सिर्फ जनाब मुशर्रफ करते हैं।
भारत गुलाम देश था, ये कटुसत्य है। क्यों था, ये छोड़िये, लेकिन क्या पुराने इतिहास को लेकर अपना वर्तमान बिगाड़ना उचित है?
एक इमान दार आदमी, कभी भी बेईमानी नही करता, ओर ना ही बेईमानो का साथ देता हे, चाहे उसे भुखा ही क्यो ना मरना पडे,मन मोहन जी पढे लिखे हे, लायक होगे, लेकिन... लाल बहादुर शास्त्री कभी नही हो सकते,काजल की कोठरी मे जितना जतन करो भाई काजल का दाग तो लगे गा ही, लाईन मे टिकट ... :) :)
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