मैं कभी एसपी सिंह से आमने-सामने नहीं मिला। लेकिन दूरदर्शन पर आजतक के 20 मिनट के बुलेटिन से काफी पहले उनके नाम और चेहरे से वाकिफ हो चुका था और बहुत हद तक उनका प्रशंसक भी। पत्रिकाओं और अखबारों में छपने वाले उनके लेखों ने बताया कि वे एक बड़े पत्रकार हैं और उनके लेखों के समाजवादी रुझान ने मुझे उनका मुरीद बनाया। जब विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मंडल आयोग की संस्तुतियों को लागू किया तो पूरे देश में बड़ा हाय-तौबा मचा। मंडल आयोग की उस तपिश में बरसों तक कइयों की विचारधारा और कइयों का असली चेहरा झुलसता रहा। टीवी का चलन नहीं था और अखबारों में भी ज्यादातर मंडल का विरोध ही दिखता था। कभी खुल्लमखुल्ला तो कहीं लुका-छुपा के। उन्हीं दिनों एसपी का एक करारा लेख किसी पत्रिका (शायद इंडिया टुडे) में पढ़ा। पिछड़ों को कोसने वालों पर सीधा प्रहार करते हुए एसपी सिंह ने लिखा था कि बराबरी और समता की बात करने वाले अगड़ी जाति के लोग पिछड़ों पर जातिवादी होने का ठप्पा ऐसे लगाते हैं गोया सवर्ण तो जातिवादी होते ही नहीं। बड़ी बेबाकी से बात कही गयी थी और वह दिल को छू गयी। सोचा था कभी मौका मिला तो सामाजिक न्याय और समाजवाद के सवाल पर एसपी सिंह से जरूर बात करुंगा। लेकिन इस बात का बहुत अफसोस है कि ऐसा नहीं हो सका। उनके दौर का होकर भी उनसे मिल नहीं सका।
लेकिन यह सोचकर मन को सांत्वना मिलती है कि जिन लोगों ने एसपी से पत्रकारिता सीखी, उनके साथ रहकर काम किया, उनके सहयोगी रहे या फिर शिष्य, उन्होंने ही एसपी के व्यक्तित्व से कौन सी प्रेरणा ली? कहां रहा बेलौस होकर सच को सामने रखने का माद्दा? कहां रही पत्रकारिता को बुनियादी सवालों से जोड़ने की अकुलाहट? कहां रही पत्रकारिता की बनी-बनायी लीक को छोड़कर एक नई राह अपनाने की कोशिश? ये वो सवाल हैं, जिनका जवाब ढूंढ़ने की कोशिश ही मन को ये राहत देती है कि चलो हम नही मिले तो क्या हुआ। जो मिले, उन्होंने ही क्या कर लिया।
Friday, June 26, 2009
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2 comments:
मुझे आज तक उस 'आज तक' के एपीसोड आँखों के सामने फ्लैश से करते लगते हैं। तब से 'आज तक' ने बहुत प्रगति की है लेकिन आज के 'आज तक' में कल वाली बात नहीं रही। बाज़ार . . .
श्रद्धांजलि
काफी हद तक सही कहा है आपने।
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