Friday, November 9, 2007

किसकी दिवाली, किसका दिवाला

आज दिवाली है। उत्साह और उल्लास का त्यौहार। बेबसी, निराशा और तनाव के बीच खुशियों के समुच्चय का प्रतीक दिवस। कहते हैं कि भगवान राम जब लंका विजय के बाद अयोध्या लौटे तो अवधवासियों ने अपने मर्यादा के पुरुषोत्तम के आने के मौके पर घी के दीये जलाए थे। तभी से रोशनी का ये त्यौहार मनाया जाता है। इस उम्मीद के साथ कि साल का एक दिन अंधकार पर प्रकाश का, अशुभ पर शुभ का और दासता पर स्वतंत्रता का संदेश लेकर लोगों के मानस में पैठ जाए। लेकिन वक्त के साथ दिवाली की शक्ल बदल गयी है। जो जितने अंधकार का शिकार है, वो उजाले का उतना ही बड़ा ठेकेदार बना बैठा है। मानवता के अभिशापी खुशियों के पैगाम बांट रहे हैं और पटाखों के धूम धड़ाके में दिवाली की वह शालीनता और गरिमा मारी जा रही है, जिसका पैरोकार खेतिहर समाज रहा है। आखिर दिवाली किसानों के लिए उजाले का त्यौहार ना होकर लक्ष्मीपुत्रों के लिए जश्न और दिखावे का जरिया बन गयी है।
दस साल से देश की राजधानी दिल्ली की दिवाली देखते देखते अनायास बचपन और गांव की दिवाली याद आ जाती है। वहां पटाखों के शोर-शराबे नहीं होते, मिट्टी के साफ सुथरे दीयों में सरसों के तेल से पूरे वातावरण को रौशन किया जाता है। उस रात की अगली सुबह सूरज के किरणों के फूटने से पहले औरत और बच्चे सूप बजाते यही राग गाते हैं- इस्सर पइठन, दरिद्दर निकलन। इसके साथ ही ये इंतजार शुरु हो जाता है कि अगला साल लोगों की जिंदगी में दरिद्रता का नहीं, समृद्धि का संदेश लेकर आएगा। पूरा साल इसी उम्मीद, इसी आस में गुजर जाता है। लेकिन ना तो ईश्वर आते हैं और ना ही लक्ष्मी ही बेबस, विपन्न लोगों को पूछने जाती हैं। तमाम कड़वाहटों के बीच दरिद्रता पहले से कहीं ज्यादा कुटिल अट्टहास करती है। क्या दिवाली के मौके पर ये नहीं पूछा जाना चाहिए कि वैभव की लक्ष्मी के हाथ पैर बांधकर क्यों चंद लोगों की तिजोरी में कैद रखा गया है। आखिर इसी समाजवादी और कल्याणकारी राज्य वाले देश में लाल झंडे वालों के सहारे हुकूमत चलाने वाले और गांधी के नाम का जाप करने वाले बड़े गुमान से इतराते कहते फिरते हैं कि देश में २३ हजार ऐसे लोग हैं, जो करोड़पति हैं। लेकिन बेशर्मी और असंवेदना में आपादमस्तक डूबी सरकार ये बताने का जहमत नहीं उठाती कि भूख से तड़पकर दम तोड़ देने वालों की तादाद कितनी है। देश के कुछ समझदार अर्थशास्त्रियों ने एक रपट तैयार की है कि एक अरब २५ करोड़ की आबादी वाले इस देश में करीब ८४ करोड़ लोग ऐसे हैं, जो हर रोज बीस रुपये कमा पाते हैं। दूसरी तरफ २० हजार के पार कुंलाचे मारते शेयर बाजार के रथ पर सवार चंद लोगों के लिए लाखों रुपये हर रोज लुटा देना बाएं हाथ नहीं, बल्कि बाएं हाथ की कानी उंगली का खेल है। क्या विषमता और शोषण की विस्फोटक बुनियाद पर टिके इस देश को दिवाली मनाने का हक है, जहां किसान और खेतिहर मजदूरों का दिवाला निकलता हो।
आखिर हमारी आपकी दिवाली को गुलजार करने वाले इसी देश में शिवकासी से लेकर मुंबई तक लाखों नाबालिग बच्चे पटाखों की फैक्टरियों में अपनी जान जोखिम में डालकर काम करते हैं। उनके मां बाप जानते हैं कि उनके बच्चों की जिंदगी में कोई सुनहरा सवेरा शायद ही आए। लेकिन हम आप कहां सोचते हैं कि जब हमारे आपके बच्चों सरीखे ही उन बच्चों का बचपन पीसा जाता है, तो उन पटाखों के मसाले तैयार होते हैं, जिनमें हमारी खुशियों, हमारी अल्हड़ उमंगों का वास होता है। क्या एक संवेदनशील समाज में हम उन बच्चों के विषय में सोच पाते हैं।
बहुत पहले हमारे पुरखों ने कहा था- बेबसी और उदासी में दिवाली क्या, नहीं तो सदा दिवाली संत घर। आखिर संतों को शासकों पर तरजीह देने वाले इस देश में विषमता की दिवाली कब खत्म होगी, थोड़ा वक्त मिले तो इसके बारे में सोच लीजिए। शायद अपनी छोटी छोटी खुशियों के लिए सामाजिक सपनों से खुद को काट लेने की दुखद मानसिकता का कुछ तो प्रायश्चित हो जाएगा।

विचित्रमणि

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