जीवन के प्रति सकारात्मक सोच हमारी परंपरा का हिस्सा रही है। आखिर हमारे पूर्वजों ने यूं ही नहीं कहा था कि जीवेत शरदं शतक। यानी सौ साल की जिंदगी। पुरखों की आजमायी कसौटी पर कस कर देखें तो भगत सिंह अगर आज होते, तो वे पूरे सौ साल के होते। लेकिन जिस उम्र में हम आप मधुर सपनों में खोए रहते थे, उस अवस्था में उन्होंने जो धमाका किया, उसकी गूंज आने वाली पीढ़ियां भी बड़े गर्व से सुनती रहेगी। उसमें त्याग का संगीत सजता है, उससे राष्ट्रप्रेम की धुन निकलती है और समाजवाद के गीत बजते हैं। २३ मार्च १९३१ को जब उन्होंने फांसी के फंदे को चूमा था, तब उनकी उम्र २३ साल, पांच महीने और २५ दिन की थी। लेकिन उतनी अल्पायु में ही भगत सिंह ने समाज को समाजवाद का पाठ पढ़ाया, अंग्रेजियत में पले बढ़े जालिम जमाने को बम के गीत सुनाए और पलायन को पीछे छोड़ते हुए मृत्यु का जिस तरह वरण किया, क्या उस कालजयी मौत पर लाखों जिंदगियां कुर्बान नहीं की जा सकती हैं? भगत सिंह ने वही किया। उनकी क्रांतिकारी जिंदगी ने समाज को जितना उद्वेलित किया था, उनकी शहादत भरी मौत ने उससे कहीं ज्यादा सिस्टम को झकझोरा। अस्सी साल गुजर गये, जब उन्होंने खुद के नास्तिक होने का खुला ऐलान किया था और आजादी के अफसाने को उपेक्षितों-वंचितों के मौलिक अधिकारों से जोड़ा था। क्या उन सपनों के लिए ही भगत सिंह को याद नहीं किया जाना चाहिए?
हम भगत सिंह को इसलिए नहीं याद कर रहे हैं कि उनके सौ साल पूरे हो गये। जन्म मृत्यु का आंकड़ा तो आता जाता रहता है। भगत सिंह जैसे अपनी फांसी के समय ७६ साल पहले थे, वैसे ही आज भी हैं और सौ साल बाद भी रहेंगे। लिहाजा आज भगत सिंह को याद करने का एक बड़ा मकसद गांधी से उन्हें जोड़ना भी है। अगर इस लेखक से पूछा जाए तो इसकी नजर में महात्मा गांधी की शख्सियत भगत सिंह से काफी ऊंची नजर आती है। बावजूद इसके अगर हम भगत सिंह से अपनी बात की शुरुआत कर रहे हैं तो इसलिए कि तमाम नकारों के बावजूद गांधी को बहुत हद तक सम्मान मिला, उन्हें सरकारी अमला भी याद करने की रस्मअदायगी कर लेता है। लेकिन इस स्वार्थी जगत को भगत की याद नहीं आती। बम की बोली को किनारे कर दें और ईश्वर को लेकर दोनों की राय को हमसाया ना करें तो क्या फर्क है गांधी और भगत में। जिस समय भगत सिंह का जन्म हुआ था, गांधी की उम्र ३८ साल थी। गांधी तब तक दक्षिण अफ्रीका में एक सफल आंदोलन का नेता बनकर उभर चुके थे। बाद में भारत आने पर गांधी ने आजादी को समाज के आखिरी आदमी से जोड़ा। धन के असमान वितरण के खिलाफ लिखा, बोला और कथनी को करनी में उतार कर दिखाया। ईश्वर में आस्था जरूर थी लेकिन मंदिरों में मत्था टेकने या किसी मजार पर घी के चिराग जलाने के लिए गांधी नहीं जाते थे। बल्कि ईश्वर को पाने के लिए उन्होंने कर्तव्य पथ पर खुद को जलाया था। खुद को जलाकर मोहनदास ने जिस गांधी को समाज के लिए निकाला, क्या उसकी खुशबू आज भी फिजाओं में घुली हुई नहीं है। दक्षिण अफ्रीका से हिंदुस्तान आने के बाद अपने पहले सार्वजनिक भाषण में गांधी ने कहा था कि अपने मन का भय निकाल दो, दुनिया की कोई ताकत तुम्हें परास्त नहीं कर सकती। समाज को निर्भयता का पाठ पढ़ाया, डरने वाले समाज को निडर बनाया। क्या भगत सिंह भी उस रास्ते पर नहीं चले थे? आखिर भगत सिंह ने सेंट्रल एसेंबली में बम फेंकने के बाद यही कहा था ना कि ये धमाका बहरी हुकूमत को अपनी आवाज सुनाने के लिए किया गया है। लेकिन उस धमाके के पीछे भगत सिंह का मकसद किसी बेगुनाह का खून बहाना नहीं था। उन्हें अंग्रेजी शासन का खात्मा करना था, उसके लिए उनसे जो बन पड़ा, उन्होंने किया। उन्होंने हिंसा का रास्ता अख्तियार किया लेकिन वकालत हमेशा अहिंसा की करते रहे। उन्होंने समाजवाद का नारा दिया लेकिन गांधी के लिए उनके मन में मार्क्स से कहीं ज्यादा सम्मान था। ये क्या सिर्फ इत्तफाक है कि भगत सिंह की शहादत के साढ़े ग्यारह साल बाद जब गांधी ने भारत छोड़ो आंदोलन छेड़ा तो नारा दिया- करो या मरो। जो बात गांधी ने उम्र के आखिरी पड़ाव पर पहुंचकर कही, भगत सिंह ने भरी तरुणाई में उस अंगड़ाई का आगाज कर दिया था।
गांधी पर ये आरोप अक्सर लगता है कि उन्होंने भगत सिंह को बचाने की कोशिश नहीं की। ये कुछ ऐसे कहा जाता है मानो गांधी का वचन तो अंग्रेजों के लिए देववाणी होता। लोग क्यों भूल जाते हैं कि गांधी के बेहद गरिमामय व्यक्तित्व के बावजूद अंग्रेज उनसे नफरत करते थे और ब्रिटिश प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल तो कहते थे- ये बुड्ढा बहुत चालाक है। याद कीजिए आपके राष्ट्रपिता के लिए ब्रिटिश नेता कैसे शब्दों का इस्तेमाल करते थे, बावजूद इसके कि नेहरू जैसे नेताओं के चर्चिल परम मित्र भी बने रहे। विषयांतर ना हो, लिहाजा फिर इस बात पर लौटते हैं कि जब भगत सिंह को फांसी की सजा हुई, तो गांधी ने क्या किया। गांधीजी ने १८ फरवरी १९३१ को तत्कालीन वायसराय से बातचीत में कहा- फिलहाल आप फांसी की सजा को टाल दें तो मैं उनको (क्रांतिकारियों को) हिंसा का मार्ग छोड़ने के लिए तैयार करूंगा। भगत सिंह बहादुर तो है ही लेकिन उसका दिमाग ठिकाने नहीं है यानी वो हिंसा के मार्ग पर चला गया है। मैं उसके साथियों को समझाने का प्रयास कर रहा हूं।
इतना ही नहीं, भगत सिंह की शहादत के बाद कराची कांग्रेस में जब गांधी भाषण देने पहुंचे, तो उनसे सवाल पूछा गया- भगत सिंह को बचाने के लिए आपने क्या किया। जवाब में गांधी ने कहा- मैं वायसराय को जिस तरह समझा सकता था, उस तरह समझाया। समझाने की जितनी शक्ति मुझमे थी, सब मैंने उनपर आजमाकर देखी। भगत सिंह के परिवार वालों के साथ निश्चित आखिरी मुलाकात के दिन अर्थात २३ मार्च को सवेरे मैंने वायसराय को व्यक्तिगत तौर पर एक खत लिखा। उसमें मैंने अपनी सारी आत्मा उड़ेल दी थी, लेकिन सब बेकार गया। आप कहेंगे कि मुझे एक बात और करनी चाहिए थी- सजा को घटाने के लिए समझौते में एक शर्त रखनी चाहिए थी। लेकिन ऐसा हो नहीं सकता था।
अब आप बताइए, अपने अहिंसा मार्ग पर डटे रहने वाले गांधी के लिए भगत सिंह को बचाने का और क्या उपाय हो सकता था। लेकिन ये सवाल क्यों गोल कर दिया जाता है कि क्या खुद भगत सिंह के लिए भी भीख से मिली जिंदगी अपमानजनक नहीं होती।
बेशक मेरा मकसद गांधी और भगत सिंह में तुलना करना नहीं है। बल्कि ये बताना है कि दोनों के राग भले जुदा रहे, लेकिन अंदर तो एक ही आग जलती रही। क्या आज भी उसी आग को जिंदा रखने की जरुरत नहीं है? तो उसी आग को धधकाए रखने के लिए ये अलाव हाजिर है। भगत सिंह का जन्मदिन २८ सितंबर है। गांधी का २ अक्टूबर। तो बस भगत सिंह से चलना शुरु कीजिए और चार डेग भरेंगे कि गांधी मिल जाएंगे। आखिर उन दोनों के बगैर भारत कैसे बनेगा और कैसे जलेगा समाजवाद का अलाव?
Thursday, September 27, 2007
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
1 comment:
जिंदा हैं भगत सिंह और तब तक जिंदा रहेंगे जब तक इस मुल्क में एक भी " अलाव " बाकी रहेगा। बाकी रहेगा किसी मजलूम को देख कर कुछ सोचने का जज्बा और किसी को भी मजलूम नहीं रहने देने का संकल्प। वो संकल्प जो गांधी से लेकर भगत सिंह ने अपनी अपनी नजर से देखा।
आज हम समाज और समाजवाद की नहीं सोचते, सेक्स और सेंसेक्स की सोचते हैं। पेट से शुरू हो कर कमर से जरा नीचे खत्म हो जाती है हमारी चिंतन यात्रा।
शहीदे आजम हों या बापू, सब मुहावरे बन गए हैं। ऐसे मुहावरे जो शब्दकोश की थाती बन गए हैं। जनरल बुलेटिन हो या विशेष, सर्वत्र उनका प्रयोग निषिद्ध है।
दुआ करता हूं (अपनी आत्मा की शांति के वास्ते) कि इस अलाव के ताप से बर्फाती संवेदनाएं पिघलें।
उम्मीद पर दुनिया कायम है। खैर,तुमने अच्छा लिखा। दिल को भाया और चेतना में समाया। साधुवाद।
लिखते रहना।
शम्भु
Post a Comment