शरद यादव का मजाक बनना था, बना। निंदा होनी थी, हुई। महिला आरक्षण पर संसद में उनकी राय ने कइयों की कनपटी के नीचे एक आग सुलगा दी। आखिर चिंगारी भी तो दमदार थी। महिला आरक्षण पर संसद में जनता दल (एकीकृत) के नेता ने कहा कि महिला आरक्षण विधेयक उन्हें मौजूदा स्वरूप में मंजूर नहीं है। उनके पास संसद में दलबल भले ना हो लेकिन जैसे-तैसे यह विधेयक पास हो गया तो वह सदन में ही जहर खाकर जान दे देंगे-सुकरात की तरह। फिर तो बवाल मचना ही था। मच गया लेकिन ठंडे दिमाग और बड़े दिल के साथ कुछ सोचने के लिए शरद यादव ने कुछ सुलगते सवाल भी छोड़ दिये हैं।
पहला सवाल यह है कि महिलाओं को आरक्षण का मतलब क्या है? एक वाक्य में कहा जाए तो जवाब होगा- महिलाओं की बेहतरी, संसदीय लोकतंत्र में उनकी मजबूत भागीदारी और उनका सशक्तीकरण। लेकिन इस जवाब में ही एक दूसरा सवाल भी छुपा है कि किन महिलाओं का सशक्तीकरण, किनकी भागीदारी और किनकी बेहतरी? जाहिर तौर पर इस सवाल का जवाब उन महिलाओं के भीतर खोजा जाएगा, जो उपेक्षित-वंचित तबके से आती हैं। जिनकी पूरी जिंदगी पिछड़ा और नारी होने की दो पाटों के बीच पीसती रही है। जो पांच कोस जाकर पीने का पानी लेकर घर आती हैं। जिसके पास इतनी सामर्थ्य नहीं होती कि पति और बच्चों के साथ दो जून का भर पेट खाना खा सके। जो हर शाम पेट पर पुराना कपड़ा बांधकर सोने को अभिशप्त है। अब आप बताइए कि क्या महिला आरक्षण की कामधेनु उस दरवाजे पर नहीं बंधनी चाहिए, जिसे वाकई जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं की दरकार है? मन का दुराग्रह निकाल कर देखा जाए तो इस सवाल पर शरद यादव आपको सौ फीसदी सही दिखेंगे। गुजराल के समय में अपनी ही सरकार और अपने ही प्रधानमंत्री से वह दो दो हाथ संसद में ही कर चुके हैं।
अगर मौजूदा स्वरूप में ही महिला आरक्षण विधेयक पास हो गया तो भारतीय लोकतंत्र के नए राजवंशियों का ही कब्जा उन सीटों पर होगा, जो महिलाओं के लिए आरक्षित होंगी। जो ताकतवर राजनेता हैं, वे तो सामान्य सीटों पर चुनाव लड़ेंगे ही, आप देख लीजिएगा कि अपनी पत्नियों, बहुओं, बेटियों को वो महिला आरक्षित सीटों पर चुनाव लड़वाएंगे। यानी चित भी मेरी, पट भी मेरी और अंटी मेरी जेब में।
सत्ता की चाहत और राजनीति में खुद को बनाए रखने की अंतहीन लालसा ने शरद यादव को उस भाजपा के साथ बीते ग्यारह साल से खड़ा कर रखा है, जो महिला आरक्षण पर कांग्रेस के सुर में सुर मिलाती है। अब भाजपा के साथ आकर अपनी समाजवादी कमीज को शरद ने थोड़ी धुमिल भले कर दी है लेकिन समाजवाद का पुराना सत्व उनमें बाकी है। वही सत्व उन्हें कभी अपने प्रधानमंत्री गुजराल से भिड़ जाने की ताकत देता है तो अब मनमोहन सरकार से टकराने की। एक ईमानदार सवाल उठाकर शरद यादव ने बधाई पाने का काम किया है।
विचित्रमणि
Saturday, June 6, 2009
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1 comment:
शरद यादव ने सही सवाल उठाये है !
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