Friday, October 5, 2007

गांधी को इतना मत छलो

एक थे देवीलाल। वीपी सिंह जैसे तेजतर्रार और चंद्रशेखर जैसे बेबाक प्रधानमंत्रियों के तहत उप प्रधानमंत्री थे। १९८९ में जब वीपी सिंह की अगुवाई वाली सरकार में उप प्रधानमंत्री बनने से पहले वो हरियाणा के मुख्यमंत्री थे। लेकिन जब केंद्रीय राजनीति में आए, तो अपने लाडले ओम प्रकाश चौटाला को सूबे की कमान दे दी। जब हो हंगामा मचा, तो बड़े तपाक के साथ कह दिया- जब लोहार का बेटा लोहार, सोनार का बेटा सोनार, किसान का बेटा किसान तो मुख्यमंत्री का बेटा मुख्यमंत्री क्यों नहीं हो सकता। क्या मासूम तर्क था! देवीलाल ने इस तर्क के साये में अपनी भ्रष्टता, वंशवाद और पुत्र मोह को ढंकने की कोशिश तो कर ली लेकिन शायद ही कोई होगा, जिसे देवीलाल के इस तर्क में तार्किकता नजर आई हो। आखिर किसान के दर्द और मुख्यमंत्री की रईसी में आकाश पाताल का फर्क होता है।
देवीलाल वाकई सीधे सादे इंसान थे। वो गांव देहात की धूल धक्कड़ से निकलकर सियासी आसमान पर चमके थे। पुत्रमोह ने उन्हें वंशवाद का पोषक बना दिया लेकिन गांव वाली सादगी उन्हें सियासी धूर्तता से जोड़ नहीं पाती थी। दूसरे होते तो कहते कि नहीं, जनता ने ही मेरे बेटे या बेटी को सेवा करने के लिए भेजा है। हम तो जनता के जन्मजात सेवक हैं। यकीन ना हो तो कांग्रेस और भाजपा की तरफ देख लीजिए। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह के बेटे पंकज सिंह को भारतीय जनता युवा मोर्चा की यूपी शाखा का अध्यक्ष बना दिया गया लेकिन नैतिकता की दुहाई देते हुए उन्होंने पद लेने से मना कर दिया। इससे पहले बीते विधानसभा चुनाव के दौरान भी बीजेपी ने उन्हें वाराणसी के पास चिरईगांव से विधानसभा चुनाव के लिए टिकट दिया था, लेकिन ऐन मौके पर उन्होंने चुनाव लड़ने से मना कर दिया। अपने बेटे की तारीफ करते हुए राजनाथ सिंह ने कहा था कि ऐसी औलाद तो ईश्वर हर इंसान को दे। लेकिन इस सवाल का जवाब उनके पास नहीं था कि आखिर उनके बेटे में ऐसे क्या सुरखाब के पर लगे थे, जो बिना कुछ किये धरे उनका राजतिलक हो जाता। देश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी के अध्यक्ष होने के बावजूद राजनाथ की राजनीतिक हैसियत बड़ी छोटी है। उनके जनाधार का आलम ये है कि अगर राज्यसभा का प्रावधान नहीं होता, तो बेचारे संसद का मुंह तक नहीं देख पाते। लिहाजा अपने बेटे को आसमान चढ़ाने की हर कोशिश उनके ही मुंह पर आ गिरी। लेकिन पिछले दिनों कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने अपने सपूत राहुल गांधी को पार्टी महासचिव बना दिया। युवराज की ताजपोशी हो गयी और चारण परंपरा में माहिर कांग्रेसियों ने समवेत स्वर में राहुल राग अलापना शुरु कर दिया।
इसके साथ ही ये फिजा बनने लगी कि थके हारे बूढ़ों का जमाना खत्म हो गया और अब राजनीति में युवाओं का दौर शुरु हो गया। क्या राहुल गांधी ही इस देश में युवाओं के प्रतीक पुरुष हैं? आखिर युवा राजनीति का मतलब क्या है? क्या सिर्फ उम्र से ही तय होगा कि राजनीति कितनी जवान है? खेल के लिए तो शारीरिक उम्र की अहमियत समझ में आती है लेकिन राजनीति के लिए उम्र का सीधा वास्ता अनुभव और समझ से होता है। अगर ऐसा नहीं होता तो २३ साल पहले ४१५ की बहुमत लेकर प्रधानमंत्री बने राजीव गांधी तो देश में राम राज्य ला दिये होते। लिहाजा ३९ साल की उम्र में कांग्रेस के महासचिव बनने वाले राजीव गांधी के बेटे राहुल गांधी अगर ३७ साल में उसी पद पर काबिज होते हैं तो ये उनका नैसर्गिक गुण नहीं बल्कि उनके माथे पर लगा उनका खानदान का टैग है। हो सकता है कि खानदार के रथ पर सवार होकर एक दिन वे देश के प्रधानमंत्री भी बन जाएं लेकिन देश का क्या गत बनेगी, इसके बारे में भी सोच लीजिए।
ये सारे सवाल और सारी आशंकाएं इसलिए उठ रही हैं कि सोनिया गांधी इन दिनों महात्मा गांधी पर भाषण दे रही हैं। सड़क से लेकर संसद और संसद से लेकर संयुक्त राष्ट्र संघ तक। लेकिन गांधी ने तो कभी वंशवाद को नहीं बढ़ाया। उनका एक इशारा उनके किसी बेटे को किसी भी बड़े पद पर बिठा सकता था और बडे बड़ों की राजनीति को धूल में भी मिला सकता था। गांधी ने ऐसा नहीं किया तो इसलिए कि वे वंशवाद के जहर और देश पर पड़ने वाले उसके असर से भलीभांति वाकिफ थे। क्या दो अक्टूबर यानी गांधी की जयंती के मौके पर ऊंचे सिद्धांत बघारने वाली सोनिया हमारे महान राष्ट्रपिता की करनी पर भी ध्यान देंगी। सवाल ऐसा है कि सोनिया गांधी तो छोड़िये, कांग्रेसी भी इससे मुंह छुपाते दिखेंगे।